मादा पशुओं के प्रमुख प्रजनन रोग एवं उनके निदान

पशु संदेश, भोपाल | 06 अप्रैल 2017

डाॅ. जे.बी.वी राजू, डाॅ. नितिन मोहन गुप्ता,डाॅ. पी. बघेल

रिपीट ब्रिडिंग (पशु का बार-बार गर्मीं में आना) :
प्रजनन का यह विकार पशु पालकों तथा कृत्रिम गर्भाधान तकनीशियनों के लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे पशु पालकों को पशु के गर्भ धारण न कर पाने के कारण बहुत नुक्सान उठाना पड़ता है। इसमें पशु दो या दो से अधिक बार गर्भाधान करने के बावजूद गर्भधारण नहीं कर पाता तथा अपने नियमित मदचक्र में बना रहता है। सामान्य परीक्षण के दौरान वह लगभग निरोग लगता है
रिपीट ब्रिडिंग के अनेक कारण हो सकते हैं जिनमें से निम्नलिखित कारण प्रमुख है-
(क) पश की प्रजनन नली में वंशानुगत, जन्म से अथवा जन्म के बाद होने वाले विकार
इनमें प्रजनन नली के अंगों में किसी एक खंड का न होना, अंडाशय का बरसा के साथ जुड जाना, अंडाशय में रसौली, गर्भाशय ग्रीवा का टेढ़ा होना, डिम्ब वाहनियों में अवरोध का होना, गर्भाशय की अंदर की परत में विकार आदि शामिल है।
(ख) शुक्राणुओं, अंडाणु तथा प्रारम्भिक भूर्ण में वंशानुगत, जन्म-जात तथा जन्म के बाद होने वाले विकार
इनमें काफी देर से अथवा मदकाल के समाप्त होने पर गर्भाधान कराने के कारण अंडाणु का निषेचन योग्य समय निकल जाना, अंडाणु अथवा शुक्राणु में विकार,एक ही सांड के वीर्य का कई पीडियों में प्रयोग, शुक्राणु व अंडाणु में मेल न होना, मद काल की प्रारम्भिक अवस्था में गर्भाधान कराना जिससे अंडाणु के पहुंचने तक शुक्राणु पुराने हो जाते हैं, आदि प्रमुख हैं।
(ग) पशु प्रबंध में कमियाँ
इनमें पशुपालक द्वारा पशु के मद काल में होने का सही पता न लगा पाना, अकुशल व्यक्ति से कृत्रिम गर्भाधान कराना, पशु के कुपोषण तथा पशु में तनाव इत्यादि शामिल है।
(घ) अंतः स्रावी विकार
इनमें अंडाणु का अंडाशय से बाहर न आना, अंडाणु का अंडाशय से बाहर आना, सिस्टिकओवरी, कोरपस ल्युटियम का असक्षम होना आदि शामिल है।
(ड) प्रजनन अंगों के संक्रामक रोग अथवा उनकी सूजन
इन रोगों में ट्रायकोमोनास फीटस, विब्रियो फीटस, ब्रुसेलोसिस, आई.बी.आर-आई.पी.वी. कोरिनीबैक्टेरियम पायोजनीज तथा अन्य जीवाणु व विषाणु शामिल है, इसमें गर्भाशय में सूजन हो जाती है जिससे भ्रूण की प्रारम्भिक अवस्था में ही मृत्यु हो जाती है।

उपचार व निवारण -

1. रिपीट ब्रीडर पशु का परीक्षण व उपचार पशु चिकित्सक से कराना चाहिए ताकि इसके कारण का सही पता लग सके, ऐसे पशु को कई बार परीक्षण के लिये बुलाना पड़ सकता है क्योंकि एक बार पशु को देखने से पशु चिकित्सक का किसी खास नतीजे पर पहुंचना कठिन होता है, अंडाशय से अंडाणु निकलता है या नहीं इसका पता पशु का मद काल में तथा मद काल के 10 दिन के बाद पुनः परीक्षण करके लगाया जा सकता है, दस दिन के बाद परीक्षण करने पर पशु की और भी बहुत सी बीमारियों का पता पशु चिकित्सक लगा सकते हैं।
2. डिम्ब वाहनियों में अवरोध जोकि रिपीट ब्रीडिंग का एक मुख्य कारण है का पता एक विशेष तकनीक जिसे मोडिफाइड पी एस पी टेस्ट कहते हैं, द्वारा लगाया जा सकता हैं, अंतःस्रावी विकार के लिए कुछ विशेष हारमोन्स जी.ऐन.आर.एच. अथवा एल.एच. आदि लगाए जाते हैं।
3. मद काल में पशु के गर्भाशय से म्यूकस एकत्रित कर सी.एस.ति. परीक्षण के लिए भेजा जा सकता है जिससे गर्भाशय के अंदर रोग पैदा करने वाले जीवाणुओं का पता लग जाता हैं तथा उन पर असर करने वाली दवा भी ज्ञान हो जाता है, इस प्रकार उस दवा के उपयोग से गर्भाशय के संक्रमण को नियन्त्रित किया जा सकता है।
4. पशु के मद काल का पशु पालक को विशेष ध्यान रखना चाहिए इसके किए उसे पशु में मद के लक्षणों का ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है, ताकि वह पशु का मद की सही अवस्था (द्वितीय अर्ध भाग) में गर्भाधान करा सके।
5. पशु पालक को पशु के सही मद अवस्था में न होने की दिशा में उसका जबरदस्ती गर्भाधान नहीं करना चाहिए तथा कृत्रिम गर्भाधान तकनीशियन को भी अनावश्यक रूप से पशु को टीका नहीं लगाना चाहिए क्योंकि इससे रिपीटब्रीडर की संख्या बढ़ती है और पशु को कई और बीमारियां होने का खतरा बढ़ जाता है।
6. रिपीट ब्रीडर पशु को गर्भाशय ग्रीवा के मध्य में गर्भाधान करना उचित है क्योंकि कुछ पशुओं में गर्भधारण के बाद भी मदचक्र जारी रहता है, ऐसे पशु का गर्भाशय के अंदर गर्भाधान करने से भ्रूण की मृत्यु की पूरी संभावना रहती है।
7. पशु पालक को पशु की खुराक पर विशेष ध्यान देना चाहिए, कुपोषण के शिकार पशु की प्रजनन क्षमता कम हो जाती है, पशु में खनिज मिश्रण व विटामिन्स ई आदि की कमी से प्रजनन विकार उत्पन्न हो जाते हैं।
8. देर से अंडा छोड़ने वाले पशु में 24 घंटे के अंतराल पर 2-3 बार गर्भाधान कराने से अच्छे परीक्षण मिलते है।


पशु का मद में न आना

यौवनावस्था प्राप्त करने के बाद मादा पशु में मद चक्र आरंभ हो जाता है तथा यह चक्र सामान्यतः तब तक चलता रहता है जब तक कि वह बूढा होकर प्रजनन में असक्षम नहीं हो जाता, प्रजनन अवस्था में यदि पशु मद में नहीं आता तो इस स्थिति को एनस्ट्रस को ट्रू अनस्ट्रस भी कहते हैं, यह निम्नलिखित द्वितीय श्रेणी एनस्ट्रस

प्रथम श्रेणी एनस्ट्रस

इस श्रेणी के एनस्ट्रस में अंडाशय के ऊपर मद चक्र की कोई रचना जैसे फोलीकल अथवा कोरपस ल्यूटियम नहीं पायी जाती, इस एनस्ट्रस को ट्रू अनस्ट्रस भी कहते है, यह निम्नलिखित कारणों से हो सकता है।
(क) कुपोषण (ख) वृद्धावस्था (ग)अतः व बाहय परजीवी तथा लम्बी बीमारियां (घ) ऋतु का प्रभाव (विशेष कर भैंसों में) (ड़) प्रजनन अंगों के विकार।

द्वितीय श्रेणी एनस्ट्रस

इस वर्ग के एनस्ट्रस में अंडाशय के ऊपर मद चक्र की रचना जैसे कार्पस ल्यूटियम अथवा फोली कल आदि पाई जाती है, यह एनस्ट्रस निम्नलिखित कारणों से हो सकता है-
(क)गर्भावस्था- गर्भ धारण के पश्चात कोर्पस ल्युटियम प्रोजेस्टरोन हार्मोन का स्राव करने लगती है, यह हार्मोन पशु को गर्मीं में आने से रोकता है, अतः गर्भावस्था पशु के मद में न आने का प्रमुख कारण हैं।
(ख) दृढ कोर्पस ल्युटियम के कारण एनस्ट्रस- इस अवस्था में गर्भाशय में पीक पड़ जाने अथवा अन्य किसी कारण से अंडाशय में कार्पस ल्युटियम खत्म न होकर क्रियाशील अवस्था में बनी रहती है जोकि पशु को गर्मीं में आने से रोकती है।
(ग) ल्युटियल सिस्ट के कारण एनस्ट्रस-
इसमें अंडाशय में एक सिस्ट बन जाता है जिससे प्रोजेस्ट्रोन हार्मोन का स्राव होता है फलस्वरूप पशु गर्मीं में नहीं आता।
(घ) कमजोर मद के कारण एनस्ट्रस-
इसमें पशु में बाहर से गर्मीं के लक्षण दिखायी नहीं देते लेकिन पशु खामोश अवस्था में गर्मीं में आता रहता है और नियत समय पर अंडाशय से अंडाणु भी निकलता है।

उपचार तथा निवारण-

(1) पशु को सदैव सन्तुलित आहार देना चाहिए देना चाहिए तथा पशु के आहार में खनिज मिश्रण अवश्य मिलाना चाहिए।
(2) पशु के मद में न आने पर उसे पशु चिकित्सक को दिखाना चाहिए।
(3) कौपर-कोबाल्ट की गोलियां भी पशु को दी जा सकती हैं।
(4) आवश्यकतानुसार पशु को पेट के कीड़ों की दवा भी अवश्य देनी चाहिए।
(5) यदि पशु स्थिर कोर्पस ल्युटियम अथवा ल्युटियल सिस्ट के कारण गर्मीं में नहीं आता तो उसे प्रोस्टाग्लेंडीन का टीका लगाया जाता है।
(6) गोनेडोट्रोफिन्स, जी.एन.आर.एच., विटामिन ए तथा फोस्फोरस के टीके भी एनस्ट्रस में दिए जाते हैं लेकिन ये पशु चिकित्सक द्वारा ही लगाए जाने चाहिए।
(7)गर्भाशय ग्रीवा पर ल्युगोल्स आयोडीन का पेंट करने से भी इस विकार में लाभ होता हैं।

मेट्राइटिस/एन्डोमेट्राइटिस (गर्भाशय शोथ)-

मेट्राइटिस अथवा गर्भाशय शोथ का अर्थ है सम्पूर्ण गर्भाशय में सूजन होना तथा एन्डोमेट्राइटिस गर्भाशय के अंदर की पर्त की सूजन को कहते हैं, अधिकांशत इसमें ओशु का सामान्य स्वास्थ्य ठीक रहता है लेकिन उसकी प्रजन क्षमता पर इसका कुप्रभाव पड़ता है। मेट्राइटिस अथवा एन्डोमेट्राइटिस पशुओं में कुछ विशेष बीमारियों के बाद उत्पन्न होती है जैसे कि कष्ट प्रसव, ब्याने के बाद साल (प्लेसेंटा)का रुक जाना तथा कुछ अन्य कारणद्य प्रसव के समय कृत्रिम गर्भाधान अथवा प्रा०ग० के समय पर फिर सीधे रक्त परिवहन से रोगाणु गर्भाशय में प्रवेश करके मेट्राइटिस अथवा एन्डोमेट्राइटिस पैदा कर सकते हैं, कई अन्य बीमारियां जैसे कि ब्रुसिलोसिस, ट्राइकोमोनिओसिस तथा विब्रियोसिस आदि भी एन्डोमेट्राइटिस पैदा करके पशु में बाँझपन पैदा कर सकती है।
मेट्राइटिस अथवा एन्डोमेट्राइटिस का प्रमुख लक्षण योनि से सफेद-पीले रंग का पदार्थ बाहर निकलना है, इसकी मात्रा बीमारी की तीव्रता पर निर्भर करती है तथा सबक्लीनिकल एन्डोमेट्राइटिस के केसों में इस प्रकार का कोई पदार्थ निकलता दिखायी नहीं देता।

उपचार व रोकथाम-

मेट्राइटिस अथवा एन्डोमेट्राइटिस का उपचार गर्भाशय में उपयुक्त दवा जैसे एंटीबायोटिक आदि डालकर किया जाता है। इसके अतिरिक्त एंटीबायोटिक के टीके मांस भी में लगाए जा सकते है। गर्भाशय से एकत्रित पदार्थ का सी.एस.टी. करवा के उपयुक्त औषधि का प्रयोग इस बीमारी का सर्वोत्तम उपचार है। पशु के ब्याने के समय तथा कृत्रिम अथवा प्राकृतिक गर्भाधान के समय सफाई का पूरा ध्यान रखकर इस रोग की रोकथाम की जा सकती है।

पायोमेट्रा (गर्भाशय में पीक पड़ जाना)-

पायोमेट्रा में पशु के गर्भाशय में पीक इकट्ठी हो जाती है, इसमें पशु गर्मी में नहीं आता तथा समय-समय पर उसकी योनि से सफेद रंग का डिस्चार्ज निकलता देखा जा सकता है। पशु का परीक्षण करने पर उसकी योनि में सफेद रंग का द्रव पदार्थ दिखता है, गुदा द्वारा परीक्षा करने पर गर्भाशय फूली हुई अवस्था में पाया जाता है। अधिकांशतः पशु के अंडाशय में कोर्पस ल्युटियम भी पायी जाती है, इस बीमारी का पशु की गर्भावस्था से अंतर करना आवश्यक ओता है क्योंकि कई बार ऐसे मादा पशु को गलती से गर्भवती समझ लिया जाता है।

उपचार-

इस बीमारी का सबसे अच्छा व आधुनिक इलाज प्रोस्टाग्लेंड़िन एफ-2 अल्फा का इंजेक्शन देना है, इस टीके के प्रयोग से सी.एल.खत्म हो जाती है जिससे पशु मद में आ जाता है और गर्भाशय में भरा सारा पीक बाहर निकल जाता है।

गर्भपात-

गाय व भैंसों में गर्भपात वह वह अवस्था है जिससे कृत्रिम अथवा प्राकृतिक गर्भाधान के द्वारा गर्भ धारण किए पशु अपने गर्भ में पल रहे बच्चे को सामान्य गर्भावस्था पूरी होने के लगभग 20 दिन पहले तक की अवधि में किसी भी समय गर्भाशय से बाहर फेंक देता है, यह बच्चा या तो मर हुआ होता है या फिर वह 24 घण्टों से कम समय तक ही जीता है। प्रारम्भिक अवस्था में (2-3 माह की अवधि तक) होने वाले गर्भपात का पशु पालकों को कई बार पता ही नहीं चलता तथा पशु जब पुनः गर्मी में आता है तो वे उसे खाली समझ बैठते है। दो या तीन माह के बाद गर्भपात होने पर पशु पालकों को इसका पता लग जाता है।

गर्भपात के कारण-

गाय या भैंसों में गर्भपात होने के अनेक कारण हो सकते हैं जिन्हें हम दो श्रेणियों में बाँट सकते हैं-
(क)संक्रामक कारण-
इनमें जीवाणुओं के प्रवेश द्वारा पैदा होने वाली बीमारियां ट्रायकोमोनिएसिस, विब्रियोसिस, ब्ररूसेलोसिस, साल्मोनेल्लोसिस, लेप्टोस्पाइरोसिस, फफूंदी तथा अनेक वाइरल बीमारियां शामिल है।

उपचार व रोकथाम-

यदि पशु में गर्भपात के लक्षण शुरू हो गए हो तो उस में इसे रोक पाना कठिन होता है, अतः पशु पालकों को उन कारणों से दूर रहना चाहिए जिनसे गर्भपात होने की सम्भावना होती है। गर्भपात की रोक थाम के लिए हमें निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए-
1. गौशाला सदैव साफ सुथरी रखनी चाहिए तथा उसमें बीच-बीच में कीटाणु नाशक दवा का छिड़काव करना चाहिए।
2. गाभिन पशु की देखभाल का पूरा ध्यान रखना चाहिए तथा उसे चिकने फर्श पर नहीं बांधना चाहिए।
3. गाभिन पशु की खुराक का पूरा ध्यान रखना चाहिए तथा उसे सन्तुलित आहार देना चाहिए।
4. मद में आए पशु का सदैव प्रशिक्षित कृत्रिम गर्भाधान तकनीशियन द्वारा ही गर्भाधान करना चाहिए।
5. गर्भपात की सम्भावना होने पर शीघ्र पशु चिकित्सक से सलाह लेनी चाहिए।
6. यदि किसी पशु में गर्भ पात हो गया हो तो उसकी सूचना नजदीकी पशु चिकित्सालय में देनी चाहिए ताकि इसके कारण का सही पता चल सके। गिरे हुए बच्चे तथा जेर को गड्ढे में दबा देना चाहिए तथा गौशाला को ठीक प्रकार से किटाणु नाशक दवा से साफ करना चाहिए।

ब्याने के बाद जेर का न निकलना-

गाय व भैंसों में ब्याने के बाद जेर का बाहर न निकलना अन्य पशुओं की अपेक्षा काफी ज्यादा पाया जाता है। सामान्यतः ब्याने के 3 से 8 घंटे के बीच जेर बाहर निकल जाती है, लेकिन कई बार 8 घंटे से अधिक समय बीतने के बाद भी जेर बाहर नहीं निकलती, कभी कभी यह भी देखा गया है कि आधी जेर टूट कर निकल जाती है तथा आधी गर्भाशय में ही रह जाती है।

कारण-

जेर न निकलने के अनेक कारण हो सकते हैं, संक्रामक करणों में विब्रियोसिस, लेप्टोस्पाइरोसिस, टी.बी., फफूंदी तथा कई अन्य वाइरस तथा कई अन्य संक्रमण शामिल है लेकिन ब्रूसेल्लोसिस बीमारी में जेर न निकलने की डर सबसे अधिक होती है। असंक्रामक कारणों में असंक्रामक गर्भपात, समय से पहले प्रसव, जुड़वाँ बच्चे होना, कष्ट प्रसव, कुपोषण, हार्मोन्स का असंतुलन आदि प्रमुख है।

लक्षण-

गर्भाशय में जेर के रह अंदर सड़ने लगती है तथा योनि द्वार से बदबूदार लाल रंग का डिस्चार्ज निकलने लगता है। पशु की भूख कम हो जाती है तथा दूध का उत्पादन भी गिर जाता है। कभी कभी उसे बुखार भी हो जाता है। गर्भाशय में संक्रमण के कारण पशु स्ट्रेनिंग (गर्भाशय को बाहर निकालने की कोशिश) करने लगता है जिससे योनि अथवा गर्भाशय तथा कई बार गुदा भी बाहर निकल आते है तथा बीमारी जटिल रूप ले लेती है।

उपचार व रोकथाम-

पशु की जेर को हाथ से निकालने के समय के बारे में विशेषज्ञों के अलग-अलग मत है। कई लोग ब्याने के 12 घंटे के बाद जेर से निकालने की सलाह देते हैं जबकि अन्य 72 घण्टों तक प्रतीक्षा करने के बाद जेर हाथ से निकलवाने की राय देते हैं। यदि जेर गर्भाशय में ढीली अवस्था में पड़ी है तो उसे हाथ द्वारा बाहर निकलने में कोई हर्ज नहीं है लेकिन यदि जेर गर्भाशय से मजबूती से जुडी है तो इसे जबरदस्ती निकालने से रक्त स्राव होने तथा अन्य जटिल समस्यायें पैदा होने की पूरी सम्भावना रहती है। ब्याने के बाद ओक्सीटोसीन अथवा प्रोस्टाग्लेंड़िन एफ-2 एल्फा टीकों को लगाने से अधिकतर पशु जेर आसानी से गिरा देते हैं, लेकिन ये टीके पशु चिकित्सक की सलाह से ही लगवाने चाहिए। पशु की जेर हाथ से निकलने के बाद गर्भाशय में जीवाणु नाशक औषधि अवश्य रखनी चाहिए तथा उसे दवाइयां देने का काम पशु चिकित्सक से ही करवाना चाहिए, पशु पालक को स्वयं अथवा किसी अप्रशिक्षित व्यक्ति से यह कार्य नहीं करवाना चाहिए। पशु को गर्भावस्था में खनिज मिश्रण तथा सन्तुलित आहार अवश्य देना चाहिए। प्रसव से कुछ दिनों पहले पशु को विटामिन ई का टीका लगवाने से यह रोग दूर किया जा सकता है।

गर्भाशय का बाहर आजाना (प्रोलैप्स ऑफ यूटरस)-

कई बार गाय व भैंसों में प्रसव के 4-6 घंटे के अंदर गर्भाशय बाहर निकल आता है जिसका उचित समय पर उपचार न होने पर स्थिति उत्पन्न हो जाती है। कष्ट प्रसव के बाद गर्भाशय के बाहर निकलने की संभावना अधिक रहती है, इसमें गर्भाशय उल्टा होकर योनि से बाहर आ जाता हैं तथा पशु इसमें प्रायः बैठ जाता है। गर्भाशय तथा अंदर के अन्य अंगों को बाहर निकलने की कोशिश में पशु जोर लगाता रहता है जिससे कई बार गुदा भी बहार आ जाता है तथा स्थिति और गम्भीर हो जाती है।

गर्भाशय के बाहर निकलने के मुख्य कारण निम्नलिखित है-
(क) पशु की वृद्धावस्था।
(ख) कैलसियम की कमी।
(ग) कष्ट प्रसव जिसके उपचार के लिए बच्चे को खींचना पड़ता है।
(घ) प्रसव से पूर्व योनि का बाहर आना।
(ड़) जेर का गर्भाशय से बाहर न निकलना।

उपचार व रोकथाम-

जैसे ही पशु में गर्भाशय के बाहर निकलने का पता चले उसे दूसरे पशुओं से अलग कर देना चाहिए ताकि बाहर निकले अंग को दूसरे पशुओं से नुकसान न हो। बाहर निकले अंग को गीले तौलिए अथवा चादर से ढक देना चाहिए तथा यदि संभव हो तो बाहर निकले अंग को योनि के लेवल से थोड़ा ऊँचा रखना चाहिए ताकि बाहर निकले अंग में खून इकट्ठा न हो। बाहर निकले अंग को अप्रशिक्षित व्यक्ति से अंदर नहीं करवाना चाहिए बल्कि उपचार हेतू शीघ्रातिशीघ्र पशु चिकित्सक को बुलाना चाहिए। यदि पशु में कैलसियम की कमी है तोे उसे इंजेक्शन से कैलसियम बोरोग्लुकोनेट दिया जाता है। बाहर निकले अंग को गर्म पानी अथवा सेलाइन के पानी से ठीक प्रकार साफ कर लिया जाता है, यदि ग्र्भाह्य के साथ जेर भी लगी हुई है तो उसे जबरदस्ती निकलने की आवश्यकता नहीं होती। हथेली के साथ सावधानी पूर्वक गर्भाशय को अंदर किया जाता है तथा उसे अपने स्थान पर रखने के उपरांत योनि द्वार में टांके लगा दिए जाते हैं। इसके बाद पशु को आवश्यकतानुसार कैलसियम बोरोग्लुकोनेट, ओक्सीटोसीन तथा एंटीबायोटिक केे टीके लगाये जा सकते हैं। इस बीमारी में यदि पशु का ठीक प्रकार से इलाज न करवाया जाए तो पशु स्थायी बांझपन का शिकार हो सकता है। अतः पशु पालक को इस बारे में कभी ढील नहीं बरतनी चाहिए।
गर्भावस्था में पशु की उचित देख भाल करने तथा उसे अच्छे किस्म के खनिज मिश्रण से साथ सन्तुलित आहार देने से इस बीमारी की सम्भावना को कम किया जा सकता है, जिसमें पशु में कैलसियम बोरोग्लुकोनेट तथा विटामिन ई व सेलेनियम के इंजेक्शन देने से भी लाभ होता है।

डाॅ. जे.बी.वी राजू1, डाॅ. नितिन मोहन गुप्ता2, डाॅ. पी. बघेल3
1,2-पशु चिकित्सा सहायक शल्यज्ञ, 3-उपसंचालक
भेड प्रजनन प्रक्षेत्र, पडोरा जिला-शिवपुरी 473551



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