दुधारु पशुओं में गर्भपात - पशुपालकों के लिए एक अभिशाप

पशु संदेश, 13 January 2020

अवनीश कुमार सिंह, महेश कुमार

हमारे देश में कृषि और पशुपालन किसानों की आमदनी का एक प्रमुख जरिया हैं, वही पशुओं में गर्भपात की समस्या हमारे पशुपालकों के लिये एक अहम चिंता का विषय हैं| गर्भपात का मतलब यह है, कि मादा पशु अपने गर्भकाल से पहले ही जीवित अथवा मृत बच्चें (बछड़ा /बछिया) को जन्म दे देती हैं| गर्भपात का मतलब केवल मृत बच्चें को जन्म देना ही नही हैं अपितु कई बार यह बछड़ा/बछिया जीवित भी पैदा होता हैं| सामान्यता इनका आयुकाल काफी कम होता है परन्तु गर्भपात के 1-2% पशुओं मे पाया गया है कि बछड़ा/बछिया अपना सम्पूर्ण आयुकाल सफलता पूर्वक व्यतीत करते हैं|

गर्भपात के कई सारे कारण हैं जैसे कि जीवाणु, विषाणु, प्रोटोजोवा, कवक (फफूंद) का संक्रमण, पोषक तत्वों की कमी, गर्भकाल के दौरान गलत दवाओं का उपयोग गर्भित पशु को गर्भकाल के दौरान किसी अन्य पशु, व्याक्ति अथवा वस्तु के द्वारा आहत पहुचना तथा उष्मागत तनाव (heat stress) या तापघात (heat stroke) आदि प्रमुख कारण हैं, जो कि पशुपालकों की आर्थिक व्यवस्था को कमजोर कर देते हैं|अत: गर्भपात के कारणों तथा उनके निदानों के बारे मे जानकरी होना अत्यन्त आवश्यक हैं|

दुधारु पशुओं मे गर्भपात के प्रमुख कारण तथा निदान

पशुओं मे गर्भपात के प्रमुख कारण निम्नवत् हैं, जो कि गर्भकाल के दौरान भिन्न – भिन्न समयों पर गर्भपात करवाते है| गर्भकाल में गर्भपात होने के समय के आधार पर गर्भपात को तीन अवस्थाओं मे विभाजित किया जा सकता हैं|
1.पहली तिमाही मे गर्भपात
2 .दूसरी तिमाही मे गर्भपात
3. तीसरी तिमाही मे गर्भपात

पहली तिमाही मे गर्भपात :-

ट्राईकोमोनियासिस – यह Tricomonas foetus नामक प्रोटोजोवा से होने वाली बीमारी है| यह प्रोटोजोवा मुख्यता संक्रमित सांड के लिंग के आसपास के क्षेत्र मे पाया जाता है , यदि संक्रमित सांड से प्राकृतिक गर्भाधान करवाया जाता है, तो यह प्रोटोजोवा स्वस्थ मादा पशुओं के प्रजनन अंगो में चला जाता हैं| यह मादा पशुओं मे पहली तिमाही मे गर्भपात, बाँझपन, प्रारम्भिक भ्रूण की मृत्यु तथा बच्चेदानी मे मवाद जैसी विकट समस्या को जन्म देता है|
निदान – किसी गुणवत्तापरक वीर्य-प्रयोगशाला से उत्त्पादित वीर्य से ही अपने मादा पशुओं का कृत्रिम गर्भाधान करवायें| पशुओं की नियमित जाँच करवाये तथा संक्रमित पशुओं को स्वास्थ पशुओं से अलग रखे साथ ही संक्रमित सांड अथवा लावारिस सांड से अपने पशुओं का गर्भाधान न करवायें|

दूसरी तिमाही मे गर्भपात :-

विब्रियासिस (कम्पाइलोबैक्टीरियासिस)- यह Campylobacter foetus जीवाणु के संक्रमण से होने वाली बीमारी है| यह जीवाणु मुख्यता संक्रमित सांड से प्राकृतिक गर्भाधान अथवा संक्रमित सांड के वीर्य से कृत्रिम गर्भाधान करवाने से मादा पशुओं के प्रजनन अंगो मे प्रविष्ट कर जाते हैं| इस बीमारी से ग्रसित मादा पशुओं के अन्तः गर्भाशय मे शोथ होने के कारण, निषेचन के कुछ ही दिनों के उपरांत प्रारम्भिक भ्रूण की मृत्यु हो जाती है अथवा गर्भकाल के ४-७ माह में गर्भपात हो जाता हैं| इस बीमारी में बाँझपन, गर्भ का न ठहरना तथा मद चक्र मे अनीमितता जैसे लक्षण भी देखने को मिलते हैं|

निदान –किसी गुणवत्ता परक वीर्य-प्रयोगशाला से उत्त्पादित वीर्य से ही अपने मादा पशुओं का कृत्रिम गर्भाधान करवायें, साथ ही प्रजनन के 30 - 90 दिन पूर्व पहला टीकाकरण करवाये, उसके बाद यह टीका प्रति वर्ष लगवाते रहें|

आई .बी.आर. - यह हर्पीज नामक विषाणु के संक्रमण से होने वाली बीमारी है| इस बीमारी से संक्रमित पशुओं मे भ्रूण गर्भकाल के ४ माह मे मर जाता है, परन्तु भ्रूण १-७ दिवस के बाद निकलता हैं| इस बीमारी मे मादा पशु के बाह्य जनन अंगो पर फफोलें भी देखने को मिलते हैं, साथ ही सूखा या सड़ा हुआ भ्रूण मिलता हैं|
निदान – इस बीमारी का इलाज बहुत प्रभावी नही होता हैं, परन्तु टीकाकरण काफी प्रभावी सिद्ध होता हैं| पहला टीका ४-६ सप्ताह की आयु तथा दूसरा टीका पहले टीके ३ माह के बाद लगाते हैं|

माइकोटिक गर्भपात - यह कवक (फफूंद) से होने वाला रोग है, जो मुख्यता Aspergillus fumigatus से होता है| इसके संक्रमण से प्रभावित पशुओं में गर्भपात की संभावना सर्दी तथा बरसात के दिनों मे अधिक रहती हैं, क्योकि इन दिनों धूप पर्याप्त नहीं होती जिसके चलते पशुओं के खान पान की वास्तुओ मे फफूंद लग जाता हैं| फफूंद तथा संक्रमित पशु से निकले स्राव, भ्रूण, जेर से संक्रमित चारा, दाना खाने ओर सूंघने से स्वस्थ पशु भी संक्रमण के शिकार हो जाते हैं| इस बीमारी मे गर्भपात गर्भकाल की दूसरी तिमाही (५-६ महीने ) मे होता हैं, साथ ही जेर कठोर (leathery) सा हो जाता हैं|

निदान– पशुओं के रहने की जगह तथा खानें पीनें के चीजों को साफ सुथरा रखें साथ ही यह ध्यान रखें, कि पशुओं के रहने की जगह पर सूर्य का प्रकाश जुरूर पहुँचें| सर्दी तथा बरसात के दिनों मे चारे के भंडारण की समुचित व्यवस्था रखें, ताकि पूरे साल भर अच्छा चारा दाना (फफूंद रहित) पशुओं खिलायें| संक्रमित पशुओं के मलवें, स्राव, भ्रूण, जेर इत्यादी को हाथों मे दास्ताने पहनकर जमीन मे दफन कर दें|

तीसरी तिमाही मे गर्भपात :-

ब्रुसेलोसिस- यह Brucella abortus जीवाणु के संक्रमण से होने वाली बीमारी है| यह गर्भपात की समस्या का सबसे अहम कारण हैं| यह बीमारी संक्रमित पशुओं से स्वास्थ पशुओं तथा मनुष्यों मे भी फैलती हैं| यह जीवाणु मुख्यता संक्रमित पशु से निकले स्राव, भ्रूण, जेर, दूध आदि मे पाए जाते हैं तथा इस बीमारी का जीवाणु लगभग 2 माह तक पशुओं के मलवें और 6 माह तक भ्रूण के ऊतकों मे जीवित रहता हैं| इस बीमारी का संक्रमण मुख्यता गर्भावस्था के दौरान होता हैं| यदि कोई पशु अथवा मनुष्य इन संक्रमित चीजो के सीधे संपर्क में आ जाता हैं तो वह भी इस बीमारी का शिकार हो जाता हैं| यह बीमारी मुख्यता संक्रमित पानी, आहार, बिना पाश्चुरिकृत दूध के सेवन, संक्रमित पशु के वीर्य से गर्भाधान करवानें, क्षतिग्रस्त त्वचा तथा नेत्रश्लेस्म (conjuctiva) से फैलती हैं| इस बीमारी मे गर्भपात गर्भकाल की तीसरी तिमाही में होता हैं, साथ ही जेर का न निकलना, गर्भाशय शोथ आदि लक्षण देखने को मिलतें हैं|
निदान- किसी गुणवत्ता परक वीर्य-प्रयोगशाला से उत्त्पादित वीर्य से ही अपनें मादा पशुओं का कृत्रिम गर्भाधान करवायें| पशुओं की नियमित जाँच करवाई जायें तथा संक्रमित पशुओं को स्वास्थ पशुओं से अलग रखा जायें साथ ही उनके मलवें, स्राव, भ्रूण, जेर इत्यादी को हाथों मे दास्तानें पहनकर जमीन मे दफन कर दें| पशुओं का टीकाकरण strain 19 Brucella abortus से करवायें|

लेप्टोस्पायरोसिस – यह Leptospira समूह के जीवाणु के संक्रमण से होने वाली बीमारी हैं| यह जीवाणु मुख्यता संक्रमित पशु के पेशाब, वीर्य तथा दूध इत्यादि मे पाये जाते हैं| यह बीमारी मुख्यता संक्रमित पशु के पेशाब से संक्रमित पदार्थो जैसे कि चारा, पानी, दूध का सेवन करने अथवा कटी-फटी त्वचा, नाक तथा नेत्रश्लेस्म से स्वास्थ पशुओं तथा मनुष्यों मे फैलती हैं| इस बीमारी मे गर्भपात गर्भकाल की तीसरी तिमाही (6 - 7 महीने ) मे होता हैं|

निदान- स्वास्थ सांड के वीर्य से ही गर्भाधान करवायें| साफ सफाई का पूरा ध्यान रखे, पशुओ के मलबे इत्यादि का सही प्रबंधन करे तथा नंगे हाथों से संक्रमित पदार्थो को न छुए| संक्रमित पशुओं को स्वास्थ पशुओं से अलग रखे साथ ही किसी पंजीकृत पशु चिकित्सक से ही उपचार करवाए|

लिस्टेरियोसिस - यह Listeria monocytogenes जीवाणु के संक्रमण से होने वाली बीमारी हैं| यह जीवाणु मुख्यता संक्रमित पशु के गोबर, दूध, प्रजनन अंगो से स्रावित पदार्थों, गर्भपतित भ्रूण इत्यादि मे पाया जाता हैं| यह जीवाणु मुख्यता संक्रमित मृदा, साइलेज (संरक्षित हरा चारा ) द्वारा पशुओं मे तथा संक्रमित दूध के द्वारा मनुष्यों प्रवेश कर जाता हैं| इस बीमारी मे गर्भपात गर्भकाल की तीसरी तिमाही (७-९ महीने ) मे होता हैं, साथ ही जेर का अटकना, गर्भाशय शोथ आदि लक्षण देखने को मिलते हैं|

निदान- संक्रमित पशुओं को स्वास्थ पशुओं से अलग रखे साथ ही किसी पंजीकृत पशु चिकित्सक से ही उपचार करवाए| पशुओं के मलबें तथा बचे हुए चारें इत्यादि का सही प्रबंधन करें तथा नंगे हाथों से संक्रमित पदार्थो को न छुए| गुणवत्ता परक साइलेज (संरक्षित हरा चारा ) ही पशुओ को खिलायें|

गर्भपात के अन्य कारण तथा निदान
पोषक तत्वो की कमी- जैसा कि हम सब जानते हैं कि गर्भावस्था के दौरान गर्भित पशुओं को काफी गुणवत्ता परक आहार कि जरूरत होती हैं, जिससे मादा पशु अपना और अपने गर्भाशय मे पल रहे बच्चे का भरण पोषण कर सके| कुछ विटामिन ( विटामिन A ओर E) तथा मिनरल (सेलेनियम और आयोडीन ) की कमी से भी गर्भपात की संभावना रहती हैं|

निदान- पशुओं को हरा चारा,सुखा चारा तथा दाना एक निश्चित अनुपात में दें तथा खानें मे कोई भी परिवर्तन अचानक से न करें| गर्भावस्था के समय पशु अपनी जरूरत से कम ही खा पता है क्योंकि गर्भाशय का आकार अधिक होने से पेट पर दबाव पड़ता हैं, इसके लिये पशुओं को काफी गुणवत्ता परक आहार कि जरूरत होती हैं| पशुओं को रोजाना ५० ग्राम की दर से मिनरल मिक्सचर खिलाना काफी लाभकारी होता हैं|

गर्भकाल के दौरान गलत दवाओं का उपयोग- गर्भावस्था के समय बहुत सी दवाओ तथा हार्मोन आदि के उपयोग से भी गर्भपात हो जाता हैं|

निदान- गर्भावस्था के दौरान यदि पशु बीमार हो जाये तो अपने पास के पंजीकृत पशु चिकित्सक की सलाह ले तथा उपचार करवाए|
गर्भित पशु का गर्भकाल के दौरान आहत होना- यह समस्या काफी सामान्य है, जो कि पशुओं के आपस में लड़ने, किसी ऊँची-नीची जगह ,चिकनी गीली फर्स पर फिसलने/ गिरने तथा किसी व्यक्ति के द्वारा पीटनें आदि से पशु आहत हो जाता हैं, जिसके फलस्वरूप गर्भपात हो जाता हैं|गर्भित पशु को अन्य पशुओं से अलग रखें तथा पशु को कच्ची, बराबर तथा साफ सुथरी जमीन पर रखें|

उष्मागत तनाव (heat stress) या तापघात (heat stroke)- मुख्यता गर्मी के दिनों मे वातावरण का तापमान काफी ज्यादा हो जाता हैं, जो कि गाभिन पशुओं के लिए बहुत दुखदाई होता हैं, जिसके चलते गर्भपात (प्रारम्भिक भ्रूण की मृत्यु) की संभावना अधिक होती हैं|

निदान- पशुओं को छायादार स्थान पर रखें, जहाँ पर हवा का आवागमन अच्छा हो, साथ ही पर्याप्त मात्रा मे साफ और शीतल पीने तथा नहाने का पानी भी उपलब्ध हो| आवश्यता अनुसार पंखों तथा फवहारों का भी प्रबन्ध करें|

यदि पशुपालक उपरोक्त बताये गए गर्भपात के कारणों तथा उनकें निदानों को ध्यान रखकर पशुओं की सही देखभाल करें तथा किसी समस्या के होने पर अपने नजदीकी पंजीकृत पशु चिकित्सक से ही उपचार करवाये, तो पशुपालक गर्भपात जैसी समस्या से होने वाले एक बड़े आर्थिक नुकसान से बच सकता हैं |

अवनीश कुमार सिंह,महेश कुमार

Department of Veterinary Gynaecology and Obstetrics

COVSc. & AH, DUVASU, Mathura