पशुओं में टिटनस रोग

Pashu Sandesh, 01 March 2022

डॉ. विशम्भर दयाल शर्मा, डॉ. सूर्य प्रताप सिंह परिहार, डॉ. गया प्रसाद जाटव, डॉ. सुप्रिया शुक्ला, डॉ. विपिन कुमार गुप्ता, डॉ. जयवीर सिंह

पशु विकृति विज्ञान विभाग, पशु चिकित्सा एवं पशु पालन महाविद्यालय, (नानाजी देशमुख पशु चिकित्सा विश्वविद्यालय जबलपुर), महू (.प्र.)

 

परिचय :-

टिटनस रोग यह एक बहुत ही घातक बीमारी है, जो कि जानवरों और मनुष्यों दोनों में पायी जाती है। इसका दूसरा नाम Lock-jaw (लॉक-जो) अथवा धनुस्तंभ भी है। यह बीमारी लगभग सभी घरेलू जानवरों में हो सकती हैं लेकिन घोड़े इस बीमारी के लिए अतिसंवेदनशील होते हैं। गाय इस बीमारी के लिए बहुत कम संवेदनशील होती है। यह बीमारी सम्पूर्ण विश्व में पायी जाने वाली बीमारी है। दुनिया में कोई भी ऐसा देश नहीं है, जहाँ इस बीमारी का प्रभाव नहीं रहा हो।

रोगकारक (Etiology) :-

  • टिटनस एक जीवाणुजनित रोग है। यह बीमारी क्लोस्ट्रीडीयम टिटैनी के विष के कारण होती है। क्लोस्ट्रीडीयम टिटैनी एक ग्राम पॉजीटिव, अवायुवीय, छडनुमा आकार का, जीवाणुजनक बेसिलस जीवाणु है। यह शाकाहारी जानवरों के आंत्र-पथ में पाया जाता है। मुख्यतः यह जीवाणु जानवरों के मल में देखा जाता है और मल उत्सर्जन के बाद यह उस क्षेत्र की मिट्टी को संक्रमित कर देता है। 
  • क्लोस्ट्रीडियम टिटैनी मुख्यतः निम्न प्रकार के टॉक्सिन (विष) पैदा करता है, हालांकि टिटनस रोग मुख्यतः टिटेनोस्पास्मिन के द्वारा ही होता है -

    

टिटेनोस्पास्मिन                                  टिटेनोलाइसिन                           अस्पास्मोंजैनिक

 

रोग का फैलना (Spread of disease) :-

  1. जानवरों में :- 
  • जब कोई जानवर, जिसकी त्वचा पर कोई गहरा घाव हो, किसी संक्रमित मिट्टी, धूल-कण और मल के संपर्क में आता है तो क्लोस्ट्रीडियम टिटैनी उस घाव के द्वारा जानवरों के शरीर में प्रवेश कर जाता हैं।
  • घोड़ों में गहरे घाव अधिकांशतः देखे जाते हैं। | इनमें पैरों में चोट लगना, फ्रेक्चर होना, नाल लगाते समय पैरों में घाव होना आदि के कारण टिटनस फैलने की संभावना ज्यादा रहती है ।
  • भेड, बकरी, सूअर आदि में संक्रमण मुख्यतः बधियाकरण, बाल काटने और पूंछ काटते समय पर होने वाले घाव के कारण फैलता है।
  • संक्रमित उपकरणों के उपयोग से भी यह रोग फैलता है।
  1. मनुष्यमें :-
  • गहरे घाव युक्त मनुष्य अगर संक्रमित मिट्टी, धूल-कण, मल और उपकरणों के संपर्क में आता है तो टिटनस रोग होने की संभावना प्रबल हो जाती है।
  • जंग लगी हुई लोह-धातु की वस्तु से कटने के उपरांत अगर त्वचा में गहरा घाव हो जाता है तो भी इस रोग के होने की संभावना बढ़ जाती है। 

रोग का वितरण (Distribution of disease) :-

            विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रतिवर्ष हजारों लोग इस बीमारी से संक्रमित होते है । यह एक "जूनोटिक बीमारी” है, जो कि जानवरों से मनुष्यों में और मनुष्यों से जानवरों में फैल सकती है। जानवरों और मनुष्यों के स्वास्थ्य की दृष्टि से यह एक अतिमहत्वपूर्ण बीमारी है।

 

रोगजनन (Pathogenesis) :-

  • क्लोस्ट्रीडीयम टिटैनी जीवाणु गहरे घाव के मार्ग से शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। शरीर के अंदर ये जीवाणु सुप्तावस्था में पड़े रहते हैं तथा दूसरे ऊतकों पर भी इनका कोई हानिकारक प्रभाव नहीं होता है, जब तक कि इन जीवाणुओं की शरीर के अंदर अनुकूल स्थिति नहीं आ जाती है ।
  • जब इन जीवाणुओं के लिए शरीर के अंदर अनुकूल परिस्थिति आती है (जैसे कि कोई स्थानीय ऊतक में ऑक्सीजन की कमी होना आदि) तो अवायुवीय परिस्थिति में इन जीवाणुओं के बीजाणुओं की संख्या में वृद्धि होने लगती है और ये प्रबल तंत्रिका-विष (न्यूरोटॉक्सिन) मुक्त करने लगते हैं।
  • इस न्यूरोटॉक्सिन को टिटेनोस्पास्मिन कहा जाता है। ये तंत्रिका-विष मोटर न्यूरॉन के कार्य को रोक देते है, जिससे न्यूरॉन्स की कार्यविधि रूक जाती है और मांसपेशियों का शिथिलन - अनुशिथिलन की प्रक्रिया रूक जाती है तथा तंत्रिका तंत्र की क्रियाविधि भी पूर्ण रूप से रूक जाती है और इस प्रकार शरीर में लकवा (पैरालाइसिस) धीरे धीरे बढ़ता चला जाता है।

लक्षण (Signs) :-

      टिटनस जीवाणु के संक्रमण होने के बाद उसके लक्षण 7 से 10 दिनों में दिखने लगते हैं। संक्रमण के समय इसके लक्षण और संकेत निम्न प्रकार हो सकते हैं –

  • गर्दन की मांसपेशियों में अकडन
  • पेट की मांसपेशियों में अकडन 
  • निगलने में कठिनाई
  • जबड़ों में ऐंठन और अकडन 
  • रक्तचाप बढ़ जाना
  • हृदय की धड़कन बढ़ना
  • बुखार
  • पसीना आना

निदान एवं उपचार :-

           रोग का निदान मरीज के क्लीनिकल लक्षणों और मरीज की चोट या घाव का पता लगाकर किया जा सकता है। जीवाणु को घाव के मवाद से, घाव की स्क्रेपिंग से और ऊतक बायोप्सी से प्रथक करके माइक्रोस्कोप की सहायता से पहचाना जा सकता है। टिटेनस का पता निम्न दो प्रकार के टेस्ट से भी किया जा सकता है- 

  1. टॉक्सिन-एंटीटॉक्सिन न्यूट्रीलाइजेशन टेस्ट 
  2. स्पेचूला टेस्ट

टिटनस का इलाज :-

        अभी तक पूर्ण रूप से इसका कोई ईलाज नहीं मिल सका है परन्तु फिर भी बचाव के माध्यम से, घावों की अच्छी देखभाल से, लक्षणों को कम करने के लिए उचित दवाएँ और सही देखभाल के माध्यम से टिटेनस का प्रभाव कम किया जा सकता है।

बचाव एवं रोकथाम :-

  • टीकाकरण :-
  • एक बार टिटनस हो जाने पर उसके बाद जीवाणु के विरुद्ध प्रतिरक्षा नहीं बन पाती है। अत: भविष्य में टिटनस के संक्रमण से बचाने के लिए जानवरों एवं मनुष्यों में समय समय पर टिटनस का टीका अवश्य लगाया जाना चाहिए तथा नजदीकी चिकित्सक एवं पशुचिकित्सक से परामर्श लेते रहना चाहिए।
  • सभी घरेलू जानवरों, मुख्यतः घोड़ों को समय- समय पर टिटनस टॉक्सोइड से प्रतिरक्षित करना चाहिए।
  • साफ- सफाई एवं स्वच्छता का पूर्ण रूप से ध्यान रखना चाहिए।
  • जानवरों के आवास का प्रतिदिन सैनिटाइजेशन करना चाहिए ।
  • जानवरों के मल-मूत्र, गोबर इत्यादि को अति शीघ्र हटा देना चाहिए ।
  • सर्जरी करने से पहले सभी उपकरणों को रोगाणु रहित करना चाहिए ।
  • बच्चों या छोटे जानवरों को समय-समय पर टीका लगवाना चाहिए ।