पशु पोषण में खनिज तत्व का महत्व एवं इसकी कमी से होने वाले रोग

Pashu Sandesh, 18th July 2020

डॉ. अशोक कुमार पाटिल एवं डॉ रवीन्द्र कुमार जैन

प्राकृतिक रूप से लगभग ४० प्रकार के खनिज जीव-जन्तुओं के शरीर में पाये जाते है, लेकिन इसमें से कुछ अत्यन्त उपयोगी है। जिनकी आवश्यकता पशु के आहार में होती है। शरीर के आवश्यकतानुसार खनिजों को दो भागों में बाटते है। एक जो खनिज लवण पशुओं के लिए अधिक मात्रा में आवश्यक है, जिनकी मात्रा को ग्राम में या प्रतिशत में व्यक्त करते है इनको प्रमुख खनिज  कहते है, जैसे कैल्शियम, फास्फोरस, पोटैशियम, सोडियम, सल्फर,  मैग्निशियम तथा क्लोरीन। दूसरे प्रकार के  खनिज लवण वे जो शरीर हेतु बहुत सूक्ष्म मात्रा में आवश्यक होते है, जिसको पी.पी.एम. में व्यक्त करते है, ऐसे खनिजों को सूक्ष्म या विरल खनिज कहते है,जैसे लोहा, जिंक, कोबाल्ट, कापर, आयोडीन, मैगनीज, मोलीब्डेनम, सेलेनियम, निकल, सिलिकान, टिन एवं वेनेडियम। 

फीड और अतिरिक्त पोषण हमेशा नमक और खनिज प्रदान नहीं करता है। क्योंकि अलग-अलग जानवर की आवश्यकता में भिन्नता होती है। नमक की कमी से भूख, वजन , दूध उत्पादन में कमी, कम वृद्धि प्राकृतिक प्रतिरोध में गिरावट और प्रजनन समस्या को जन्म देती हैं। इन समस्याओं को देखते हुए पशुपालक को पाचक तत्व जैसे कच्ची प्रोटीन, कुल पाचक तत्व और चयापचयी उर्जा का भी ज्ञान होना आवश्यक है। 

पशु शरीर में खनिज तत्व का  महत्व : 

सन्तुलित आहार सभी प्रकार के पौष्टिक तत्व जैसे शर्करा, प्रोटीन, वसा, खनिज तत्व और विटामिन्स का उचित मात्रा में मिश्रित अनुपात होता है। सन्तुलित आहार खिलाने से पशु स्वस्थ रहते है। साथ ही, उनका दूध, ऊन, मांस भी बढ़ता है। पशु आहार में यदि खनिज तत्व की कमी होगी तो आहार के अन्य पदार्थ शर्करा, प्रोटीन, वसा आदि का सही तरह से प्रयोग नहीं हो सकेगा। पशु कमजोर हो जाता हैं। अनेक प्रकार की बीमारी हो सकती है। अगर, यही तत्व आवश्यकता से अधिक मात्रा में होते है तो भी यह स्वास्थ्य के लिए बहुत ही हानिकारक हैं। इससे भी पशु में बीमारी अथवा मृत्यु तक हो सकती हैं। पशु आहार में खनिज तत्व के अभाव और अधिकता से बीमारी भी हो जाती है।

कैल्शियम अल्पता- मिल्क फीवर / दुग्ध ज्वर:

यह रोग पशु के शरीर में कैल्शियम तत्व की कमी से उत्पन्न होता है तथा सामान्य रूप से मांसपेशियों की कमजोरी, मानसिक अवसाद एवं दूध उत्पादन की कमी के रूप में परिलक्षित होता है। यह रोग अधिक दूध देने वाले पशुओं में ज्यादा पाया जाता है। जनन के 72 घण्टों के अन्दर या जनन के बिल्कुल पहले यह रोग ज्यादा देखा गया है, परंतु कभी-कभी ब्यांत के 3 से 8 हफ्तों के दौरान भी यह रोग होता है। रोग की प्रारम्भिक अवस्था (उत्तेजना अवस्था) में प्रभावित पशु में उत्तेजना, भूख की कमी, अतिसंवेदनषीलता तथा मांसपेशियों की हलचल, सिर का बार-बार झटकना, जीभ का बाहर निकालना, लंगड़ापन, पिछले पैरों का तनाव तथा दांत किटकिटाना आदि लक्षण पाए जाते हैं।

रोग की दूसरी अवस्था (अद्र्धासन अवस्था या बैठ जाने की अवस्था) में पशु उदासीन दिखाई देता है तथा खड़ा होने में असमर्थता, थूथन का सुख जाना, शारीरिक ताप सामान्य से गिर जाना एवं शरीर का ठण्डा पड़ जाना, प्रभावित पशु द्वारा अपनी गर्दन मोड़ कर अपनी कॉंख पर रखना इत्यादि लक्षण देखने को मिलते हैं। इस रोग की तीसरी अवस्था (धराशायी अवस्था) में पशु बैठ भी नहीं पाता है एवं जमीन पर लेट जाता है, तथा उपरोक्त लक्षण और अधिक गहरा जाते हैं। पशु की हृदय गति कम तथा दुर्बल हो जाती है, रूमन (पेट) की गति रूक जाती है। प्रभावित पशु में गुदा की शिथिलता तथा आंख की पुतलियों का फैल जाना भी देखा जा सकता है। इस रोग के उपचार के लिए प्रभावित पशु को रक्त मार्ग से कैल्शियम चिकित्सा देने से तत्काल लाभ मिलता है।

फॉस्फोरस अल्पता : पोस्ट पार्चुरियेन्ट हिमोग्लोबिन्यूरिया:

यह एक फास्फोरस तत्व की कमी से होने वाला रोग है जो प्रभावित पशुओं में लाल रक्त कोशिकाओं के नष्ट होने तथा रक्ताल्पता के रूप में परिलक्षित होता है। यह रोग 3 से 6 ब्यांत की अवधि के दौरान तथा अधिक दूध देने वाले पशुओं में ज्यादा पाया जाता है तथा ब्याने के 2 से 4 सप्ताह के बाद यह रोग अधिक देखा गया है।  भूख की कमी, कमजोरी, दूध उत्पादन में कमी, पशु के शरीर में रक्त की कमी एवं श्लेश्मिक झिल्लियों का पीलापन, पशु के शरीर में जल की कमी के कारण गोबर का सूखा एवं कठोर होना, पीलिया तथा हृदय की गति बढ़ जाना इस रोग में पाये जाने वाले मुख्य लक्षण है। प्रभावित पशु में रक्त की कमी (एनीमिया) तथा भूख की कमी के कारण कुछ ही दिनों में पशु मर भी सकता है। उपचार के लिए प्रभावित पशु को फॉस्फोरस उपलब्ध कराने के लिए सोडियम एसिड फास्फेट रक्त मार्ग (नस से) तथा त्वचा के नीचे दिया जा सकता हैं, भोजन के साथ हड्डियों का चूरा या डाइकैल्शियम फास्फेट भी लाभकारी होता है। रक्त बढ़ाने के लिए कॉपर, लोहा तथा कोबाल्ट सम्मिश्रित टॉनिक लाभकारी होते हैं। रोग की रोकथाम के लिए ऐसे क्षेत्र जहां की मिट्टी में फास्फोरस की कमी हो में पशुओं को पूरक आहार के रूप में खनिज मिश्रण संतुलित आहार के साथ नियमित रूप से देना चाहिए।

अस्थिमृदुता (ऑस्टियोमलेशिया) :

यह एक वयस्क दुधारू पशुओं में पाया जाने वाला कंकाल सम्बधित रोग है जो कि पशु के शरीर में कैल्शियम, फास्फोरस एवं विटामिन-डी की कमी से हो सकता है। आहार दोष विशेष रूप से खनिज लवणों से युक्त आहार का पूरित न होना, आहार में गेहूं, चोकर या दाल-चूरी की अधिकता एवं शहरी वातावरण में रखी गई दुधारू गाय एवं भैंस में यह रोग अधिक प्रचलित है। दुधारू पशु में दूध उत्पादन कम हो जाना, प्रजनन क्षमता कम हो जाना, भूख की कमी, पैरों की मांसपेशियों में कठोरता, असन्तुलित चाल, जोड़ो में दर्द, धनुषाकार कमर, पशु को उठने-बैठने में दिक्कत होना एवं चलते समय लंगड़ाने के साथ जोड़ों से आवाज आना इस रोग में पाये जाने वाले मुख्य लक्षण हैं। पिछले पैरों में लंगड़ापन इस रोग में अधिक पाया जाता है, अधिक दुधारू पशुओं में यह स्थति ”मिल्कलैग” के नाम से जानी जाती है। इस रोग के उपचार के लिए पशु आहार को विटामिन-ए, डी  तथा सी के साथ-साथ खनिज लवणों जैसे कैल्सियम, फास्फोरस इत्यादि से परिपूरित करें। प्रभावित पशुओं में अस्थि निर्माण में सहायक तत्व इन्जेक्शन के रूप में दिए जाने पर भी फायदा होता है। गर्भावस्था एवं वृद्धिकाल में पशुओं को संतुलित आहार एवं खनिज मिश्रण का उपयोग करने से इस रोग को पनपने से रोका जा सकता है।

रिकेट्स :

वृद्धिशील, अल्पायु पशुओं में कैल्शियम एवं फास्फोरस के चयापचय का दोषपूर्ण होना या विटामिन-डी एवं कैल्शियम की कमी इस रोग को जन्म देते हैं। प्रभावित पशु की वृद्धि रूक जाना, पैर कमानाकार (टेढ़ा-मेढ़ा हो जाना), जोड़ों का आकार बढ़ जाना, हड्डियों का आकार छोटा हो जाना, जोड़ों का सख्त हो जाना, लंगड़ाकर चलना, पशु के दांतों में विकार उत्पन्न होना एवं मिट्टी खाने की प्रवृति बढ़ जाना आदि लक्षण देखे जा सकते है। इस रोग के उपचार के लिए विटामिन-ए, डी-3, कैल्श्यिम बोरोग्लुकोनेट, मैग्नीशियम और फास्फोरस देने से लाभ मिलता है। वृद्धिशील पशुओं में विटामिन-डी, मछली का तेल, हड्डियों का चूरा, डाइकैल्शियम फॉस्फेट, प्रोटीन, कैल्शियम एवं फास्फोरस-युक्त आहार का प्रयोग इस रोग की रोकथाम के लिए लाभकारी सिद्ध होता है।


लोहा : 

पशु शरीर में लोहा खनिज तत्व की कमी से खून में हिमोग्लोबिन की कमी हो जाती है। इससे एनीमिया नामक रोग हो जाता है। जिससे शरीर में कमजोरी और उदासीनता आ जाती है। पशु थकान महसूस करता है। हदय की धड़कन बढ़ जाती है। नवजात को भूख कम लगती है। बढ़वार कम होती है । साथ ही, संक्रामक रोग से प्रतिरोधक क्षमता भी कम हो जाती है। इस तत्व की कमी छोटी उम्र के पशु में अधिक देखने में आती है। जिन्हे केवल दूध ही अधिक पिलाया जाता है। दूध में इस तत्व की हमेशा कमी रहती हैं। सकर में इस तत्व की कमी से उसके बच्चों में पिगलेट एनीमिया नामक रोग होने का भय रहता है। क्योंकि उनको भी अधिकांशत: दूध ही पिलाया जाता है। यह तत्व लगभग सभी प्रकार के खाद्य पदार्थ में पाया जाता है। फिर भी हरी पत्ती वाले खाद्य पदार्थ, चारा जैसे लूसर्न, बरसीम आदि और मांस आहार इस तत्व के बहुत ही अच्छे स्त्रोत है।

आयोडिन

आयोडीन तत्व का मुख्य भाग ‘थायराइड’ नामक ग्रन्थि थायरोक्सीन नामक हार्मोन घटक के रूप में उपस्थित होता है। शरीर में थायरोक्सीन हार्मोन का मुख्य कार्य आधार उपापचय दर को बढ़ाना, वृद्धि दर को बढ़ाना तथा ऑक्सीजन उपयोग बढ़ाना है। इस तत्व की कमी से पशु में ‘गौइटर’नामक रोग हो जाता है। जिसमें थायराइड ग्रन्थि का आकार बढ़ जाता है। थायरोक्सीन कम अथवा बनना बंद हो जाता है। गर्भावस्था के दौरान इस तत्व की कमी से पैदा होने वाले बच्चें के शरीर पर बाल (ऊन) नहीं होते, कमजोर होते है। कभी शिशु मृत ही पैदा होते है।

फ्लोराईड:
 फ्लोरीन तत्व दांत तथा अस्थि क्षय रोकने में सहायता करता है। यह तत्व साधारणत: खाद्य पदार्थ की अपेक्षा पीने के पानी द्वारा शरीर में प्रवेश करता है। इस तत्व का 1 पी.पी.एम. तक दांत और हड्डी विकास के लिये लाभदायक है। परन्तु, इससे अधिक 2 पी.पी.एम. तक शरीर के लिए हानिकारक हैं। इस तत्व की अधिकता से हड्डी का क्षय होता है। दांतो में फ्लोरोसिस रोग हो जाता है। दांत में गढ्डे पड़ जाते है, चमक समाप्त हो जाती हैं। पशु आहार ग्रहण के समय दांत टूटने का खतरा रहता हैं। जिसके कारण पशु भोजन आवश्यकता से कम खाता है। इसका दुष्प्रभाव पशु की बढ़वार, दुग्ध उत्पादन और भेड़ में ऊन उत्पादन पर पड़ता है।

खनिज तत्व कमी निवारण के लिये पशुपालक क्या करें ?

इसके लिए पशु पालक को चाहिये कि वे अपने पशु को बाजार में उपलब्ध विभिन्न गुणवत्ता  के खनिज तत्व मिश्रण और साधारण नमक नित्य आहार का एक प्रतिशत खिलाये। आजकल विभिन्न गुणवत्ता की खनिज/लवण ईंट भी उपलब्ध है। इसको पशु की ठाण के पास रख दिया जाता है। यह सस्ती भी पड़ती है। इस प्रकार पशु को खनिज तत्व की कमी से उत्पत्र होने वाली बीमारियों से बचाया जा सकता है। साथ ही, इससे पशु उत्पादन क्षमता भी बढ़ती हैं।

 

डॉ. अशोक कुमार पाटिल एवं डॉ रवीन्द्र कुमार जैन 

पशु चिकित्सा एवं पशु पालन महाविधालय, महू (म॰ प्र॰)

 

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