ग्लैंडरस एवं फारसी रोग एक खतरनाक पशुजन्य / जूनोटिक बीमारी
Pashu Sandesh, 08 July 2022
डॉ प्रतीक मिश्रा (पशु चिकित्सा औषध विज्ञान और विष विज्ञान)
डॉ अनुश्री तिवारी (पशु रोग विज्ञान)
ग्लैंडरस एवं फारसी रोग घोड़ों, गधों, टट्टुओ व खच्चरों में पाया जाने वाला एक जीवाणु जनित संक्रामक एवं पशुजन्य अर्थात जूनोटिक रोग है जो कि बरखोलडेरिया मैलियाई नामक जीवाणु से उत्पन्न होता है। यह बीमारी संक्रमित पशुओं से मनुष्यों में फैल सकती है। यह बीमारी लाइलाज और अत्यंत घातक है। इस बीमारी से ग्रस्त पशु इलाज के बाद सामान्य दिखते हुए भी बीमारी को अन्य स्वस्थ पशुओं में एवं मनुष्य में फैला सकते हैं।
- रोग के लक्षण
- घोड़ों में रोग के लक्षण काफी भिन्नता रखते हैं यह अति तीव्र व दीर्घकालिक दोनों रूपों में होता है. तथा कभी-कभी बिना किसी बाहरी लक्षण के घोड़ा बीमार रहता है तथा फेफड़ों में गांठे पड़ जाती हैं। ग्लैंडर्स नेजल / पलमोनरी या ग्लैंडूल रूप जिसमें त्वचा छत/ फारसी भी होता है या दोनों रूप एक साथ भी हो सकते हैं। घोड़े कभी-कभी खुले घावों के साथ महीनों तक जीवित रहते हैं और रोग का निरंतर फैलाव करते हैं।
- तीव्र ग्लैंडर्स
- एक्यूट ब्रानको निमोनिया के सभी लक्षण होते हैं जैसे तेज बुखार, स्वास्थ्य में गिरावट, तेज स्वास का चलना जिसके चलते कुछ ही सप्ताह में पशु की मृत्यु हो जाती है। यह रोग गर्भो एवं खच्चरों में में फारसी रहित या सहित पाया जाता है।
- पशुओं में ग्लैंडर्स के लक्षण
- तेज बुखार होना ।
- नाक से पीला श्राव आना और सांस लेने में तकलीफ होना। नाक के अंदर छाले एवं घाव दिखना ।
- पैरों, जोड़ो, अंडकोष व सबमैक्सीलरी ग्रंथि में सूजन हो जाना।
- फारसी
- जब पूंछ, गले एवं पेट के निचले हिस्से में गांठ पड़ जाए एवं त्वचा में फोड़े व घुमडिया, आदि पड़ जाए।
- रोग फैलने के कारण
- बीमार पशु के साथ रहने से।
- बीमार पशु के मुंह व नाक से निकलने वाले स्राव से
- बीमार पशु व स्वस्थ पशुओं का चारा-पानी एक साथ होने से।
- उपचार
- सामान्यता रोग के नियंत्रण हेतु उपचार न करके बीमार पशुओं को नष्ट किया जाना ही प्रभावी होता है।
- रोग से बचाव
- रोग के लक्षण मिलने पर तत्काल पशु चिकित्सक से संपर्क कर बीमार पशु की तत्काल स्वास्थ्य जांच एवं रक्त जांच कराना।
- स्वस्थ पशुओं को बीमार पशुओं से अलग रखना।
- बीमार पशु को चारा व पानी अलग से देना।
- अन्यपशुवमनुष्योंमेंयहबीमारीनफैलेइसकेलिएबीमारपशुकोमनुष्योंसेअलगरखना।
- स्वस्थ पशुओं को बीमारी घोषित वाले क्षेत्रों में ना ले जाएं।
- बीमार पशुओं को मेला, हाट आदि स्थानों पर न ले जाए।
- स्वस्थ दिखने वाले पशु की भी प्रत्येक 4 माह पर निकटतम पशु चिकित्सा अधिकारी द्वारा स्वास्थ्य जांच एवं रक्त जांच कराना।
- विसंक्रमण
- पशु की मृत्यु होने के उपरांत पशु एवं उसकी बिछावन एवं अन्य संपर्क की वस्तुओं को 6 फुट गहरे गड्ढे में चूना और नमक डालकर दबाना। • बीमार पशु को आबादी से दूर एवं एकांत स्थान में रखना।
- पशु को छूने या संपर्क में आने के बाद एंटीसेप्टिक लोशन व साबुन से हाथ धोना।"
- रोग की पुष्टि वाले पशु को दर्द रहित मृत्यु दिलाने में पशु चिकित्सक का सहयोग करना।
- मनुष्य में संक्रमण
- अमेरिका में सन 2000 में यह बीमारी एक रक्षा वैज्ञानिक को प्रयोगशाला में हो चुकी है। भारत में मनुष्यों में अभी तक इस रोग के होने की पुष्टि नहीं हुई है परंतु खतरा हमेशा बना रहता है।