Pashu Sandesh, 05 July 2021
डा. नितिन मोहन गुप्ता1, डा. एस एस तोमर2, डा. अमित झा3, डा. राजेश वान्द्रे 4
1. पी.एच.डी. स्कालर , 2. प्राध्यापक एवं विभाग प्रमुख (प्रभारी अधिष्ठाता), 3.सहायक प्राध्यापक, 4.सहायक प्राध्यापक
पशु प्रजनन एवं अनुवांशिकी विभाग
पशु चिकित्सा विज्ञान महाविद्यालयए रीवा म.प्र.
किसानों द्वारा लंबे समय से भारत वर्ष में परम्परागत रूप से मिश्रित खेती की जाती रही हैं। इससे किसानों के परिवारों को भरण पोषण के साथ साथ प्राकृतिक तथा अन्य आपदाओं के समय सुरक्षा भी मिलती हैं। जब खेती में प्राकृतिक तथा अन्य आपदाओं के कारण फसल नष्ट हो जाती हैं, तो इसका परिणाम किसानो के ऊपर मुनाफा कम और बढते कर्ज के कारण आत्महत्या के रूप में सामने आया हैं। इस तरह की व्यवसायिक खेती जब तक सम्भव नहीं हैं, जब तक कि किसानों के पास आपदा प्रबन्धन एवं खतरा सहन की पर्याप्त व्यवस्था न हो। छोटे खेत और व्यावसायिक दृष्टिकोण न होने के कारण तथा सरकार द्वारा खेती में आपदा प्रबन्धन एवं खतरा सुरक्षा जैसी व्यवस्थायें किसानों को उपलब्ध नहीं करायें जा सकते हैं। इस कारण पशुपालन आधारित मिश्रित खेती सुरक्षा का आधार देती है। अतः किसानों को खेती एवं पशु पालन की ऐसी तकनीक एवं विधि देने की आवश्यकता हैं जो कि किसानों को आपदा प्रबन्धन एवं खतरों को सहन कराने में स्वयं ही सक्षम हो साथ ही साथ आधुनिक खेती एवं पशु पालन की वैज्ञानिक विधियों को भी समाहित किये हुये हो।
जब फसलों के उत्पादन के साथ-साथ पशुपालन भी किया जाता है तो इसे मिश्रित कृषि या मिश्रित खेती कहते हैं। जब फसल एवं पशुपालन दोनो ही मिश्रित रूप से आय के स्रोत हो तो ऐसी खेती को मिश्रित खेती कहते हैं। मिश्रित् खेती में कृषि के साथ केवल दुधारू गाय एवं भैंस पालन के अलावा भेड़, बकरी अथवा मुर्गी-पालन भी किया जाये तब इस प्रकार की फार्मिग को मिश्रित / विविधकरण खेती की श्रेणी में रखा जाता है। मिश्रित खेती में पशुओं का योगदान एक पूरक व्यवसाय के रूप में होता है।
मिश्रित खेती के लाभः-
1. पशुओं के रखने से फार्म पर दूध व कृषि कार्यों के लाभ के अतिरिक्त खाद की प्राप्ति भी होती है, जिससे भूमि की उपजाऊ शक्ति की क्षति को रोका जा सकता है।
2. वर्ष के अधिकांश भाग में नियमित रूप से आय प्राप्त होती रहती है।
3. मुख्य व्यवसायों से प्राप्त उप फलों {बायप्रोडक्ट} जैसे भूसा, पुआल, गोबर व मूत्र आदि का सही उपयोग हो जाता है।
4. फसलों की खेती से अन्य लाभ के अतिरिक्त फार्म के पशुओं को अच्छी किस्म का व सस्ता चारा दाना आदि मिलता रहता है।
5. आर्थिक दृष्टिकोण से भूमि, श्रम व पूंजी का समुचित प्रयोग हो जाता है।
6. शुदध आय प्रति एकड कृषि के अन्य प्रकार की अपेक्षा इसमें अधिक प्राप्त हो जाती है, क्योंकि अन्य व्यय वर्ष भर में विभिन्न प्रकार के घटकों में बंट जाते है, जिससे फसल तथा पशु उत्पादन की प्रति इकाइ पर व्यय अपेक्षाकृत कम हो जाता है।
7. कृषक को उपयोग के लिये विभिन्न वस्तुओं जैसे दूध, दही, घी, मठा, अंडा, फल एवं सब्जी के रूप में एक पौष्टिक व संतुलित आहार प्राप्त हो जाता है।
पशु पालन का कृषकों के जीवन यापन की सुरक्षा में महत्वः
पशुपालन द्वारा खेतों के लिये अच्छी गुणवत्ता की खादः
गाय एवं भैंस के गोबर तथा मूत्र से खेतों में अच्छी गुणवक्ता की खाद प्राप्त की जा सकती है जिसमें किसान अपनी फसल का उत्पादन बढ़ा सकते हैं। कई क्षेत्रों में किसान फसल काटने के बाद खाली खेतों में पशुपालकों को पैसा देकर अपने खेत में बकरी तथा भेड़ एवं रेवड़ रखने तथा चराने के लिये आमंत्रित करते हैं। जब बकरी को खेत में चरनें के समय मेंगनी तथा मूत्र खेत में समान रूप से फैल जाता है। इससे किसान का खाद फेलानें में भी अच्छी वृदध हो जाती हैं। वर्तमान में मेंगनी, खेतों तथा मेड़ो की बेकार घास को मिलाकर केंचुओं द्वारा भी अच्छी कम्पोस्ट खाद तैयार की जा सकती है। कम्पोस्ट बनाने की अन्य आधुनिक विधियों में भी गोबर तथा जैविक कूड़ें के साथ बकरी की मेंगनी तथा मूत्र को मिलाकर अच्छी कम्पोस्ट खाद तैयाद की जा सकती हैं।
घर तथा खेतों के अनुपयोगी पदार्थो का पशुओं के लिये उपयोग
घर का बचा चोकर, भोजन आदि भूसे के साथ मिला देने से पौष्टिक भोजन तैयार हो सकता है। एक परिवार के द्वारा जो अनुपयोगी साम्रगी जैसे अन्न के दाने एवं हरे पत्ते वाली सब्जी लगभग सभी पशुओं को दी जा सकती है। घर पर बचने वाली चोकर एवं अन्न के दाने को छोटे पशु जैसे भेड एवं बकरी को भी दी जा सकती है, उससे 2 से 3 बकरियों को खरीद कर दाना देने की आवश्यकता नहीं रहती हैं।
फसल कटाई के बाद के समय खेंतों का दाना बकरी बीन बीन कर खा लेती हैं। मेड़ो पर उगी घास तथा झाड़ियो से एवं बेकार जमीन पर उगे पीपल, बरगद, नीम, बेर, पाकड, बबूल आदि पेड़ों से बकरियों अपने हरे चारे की पूर्ति कर लेती है। बड़ी रेवड़ के लिये ही खेतों में चारा उगाने की आवश्यकता पड़ती हैं। तथा दाना बनाने की मशीन से तैयार करना पड़ता हैं। अथवा तैयार दाना बाजार में खारीद कर बकरियों का देना पड़ता हैं। पांच से दस बीघा जमीन वाला किसान 20 से 25 बकरियों के लिये चारा, दाना तथा भूसा अपनी धान्य फसलों से ही उचित फसल चक्र अपना कर प्राप्त कर सकता हैं। उसके लियें उसे चारे की अतिरिक्त फसलों को बोने की आवश्यकता नहीं रहती।
अतः किसान मिश्रित खेती में अगर पशुपालन को भी उचित स्थान दे तो उन्हें सूखा पड़ने पर भी पशु, पोषण एवं जीवन यापन के लिये सुरक्षा प्रदान करने में सक्षम हैं तथा सामान्य मौसम में पशुओ से अधिक से अधिक लाभ एवं रोजगार के साधन किसानों के परिवार विशेषकर महिलाओं का उपलब्ध करा सकती हैं। अतः किसान मिश्रित खेती कर अधिक से अधिक लाभ कमा सकते है।