शहरी क्षेत्रों में आवारा पशुओं का प्रबंधन

पशु संदेश, 21 October 2019

विकाश कुमार, सुनील कुमार

परिचय 

अधिकांश शहरी क्षेत्रो में आवारा पशुओं की समस्या बहुत गंभीर है। उन मवेशियों को वाहन दुर्घटना, कुत्ते का काटना, बच्चों द्वारा उनपर पथराव जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। ये आवारा पशु सड़क पर वाहन दुर्घटना के मुख्य वजह बनते हैं क्योंकि वे पक्की सड़कों के किनारे कच्चे रास्ते पर विचरण करते रहते है। इस समस्या के निदान के लिए खाली या सरकारी भूमि पर उनका आश्रय बनाना चाहिए ताकि उनके कारन होने वाले खतरे और दुर्घटनाओं को नियंत्रित किया जा सके। उनसे प्राप्त गोबर का पंचगव्य या जैविक खाद के रूप में प्रयोग किया जा सकता है, गोशाला इस दिशा में एक सराहनीय प्रयास है। अतःअधिक गोसदन और गोशाला के लिए स्थापित करने की जरूरत है और  पशु कल्याण कोष को बढ़ाने की आवश्यकता है। सड़क पर अवांछित मवेशियों को कम करने के लिए लैंगिक वीर्य की उपलब्धता एक वैकल्पिक निदान है।

आवारा पशुओं का व्यवहार एवं आवास-प्रवास 

आवारा पशुओं का व्यवहार सामान्य पशुओं से अधिक वैकल्पिक और परिष्कृत है क्योंकि उनमे पर्यावरण के अनुसार उस रंग-रूप में समायोजित होने की काबिलियत है। वॆ अक्सर रेत पर बैठना पसंद करते हैं जो निर्माण-कार्य हेतु सड़क के किनारे रखे रहते हैं। उन्हें अक्सर रहने के लिए पक्के सडकों की तुलना उसके आस-पास कच्चे रास्तें पसंद आते हैं। सर्दी के मौसम में रास्ते के आस-पास कचरों को प्रयोग कम तापमान से बचने हेतु जलाते हैं, वहा वे पशु रात में बैठते हैं। वातावरण के अवांछित प्रभाव से बचने के लिए वे आम तौर पर झुंड या समूह में रहते हैं। जब-कभी झुण्ड का एक पशु कही भागता है, तो अन्य पशु भी उसका अनुसरण करते हुए उसके साथ चलते हैं। कभी-कभी यह भी देखा गया है की अगर कुत्ते किसी बछरे पर हमले करते हैं तो साथ के मवेशी उसे अस्थायी सुरक्षा देते हुए उन कुत्तो को भगा देते हैं। 

आवारा पशुओं के भटकाव और उनके उग्र व्यवहार की निगरानी हेतु आर. एफ. आई. डी. तकनीक एवं जी.पी. एस. का प्रयोग एक ऊचित विकल्प है। शहर के कचरे और गन्दी सडको के आस-पास रहने वाले बीमार पशुओ का शल्य- चिकित्सा के बाद उनके अंदर से ५० किलो ग्राम तक ठोस प्लास्टिक पाए गए हैं, तथा कभी- कभी उनके आंत से लोहे की किल भी निकलते है। चूकी, ज्यादातर ये पशु कचड़ा और अवशेष पदार्थो का सेवन करते हैं इसलिए उनके अच्छे स्वास्थ्य की परिकल्पना नहीं की जा सकती तथा उनका दूध और मांस का सेवन मनुष्यों के स्वास्थ्य के लिए चुनौतीपूर्ण है। इस तथ्य का पर्याप्त साक्ष्य है कि ये पशु जल एवं खाद्य जनित रोगाणुओं के वाहक है इन पशुओं से प्राप्त गोबर एवं खाद और अपशिष्ट जल में पर्यावरण के लिए रोगजनक और प्रदूषक, जैसे एंटीबायोटिक्स, पोषक तत्व (नाइट्रोजन और फास्फोरस), हार्मोन, तलछट, भारी धातु, कार्बनिक पदार्थ, और अमोनिया की घनत्व और मात्रा बढाने की क्षमता है जो अंततः मानव स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकते है।

हिंदुस्तान में आवारा पशुओं के कल्याण हेतु कुछ निर्धारित कानून-

१. पशु को जहरीला पदार्थ नहीं दिया जाना चाहिए।

२. आवारा पशुओं को मारना अवैध है, नगर पालिका को इन पशुओं की आबादी को नियंत्रित के लिए  उनका बंधीकरण कर उन्हें बाँझ बनाने का अधिकार है।

३. किसी भी पशु को सोद्देश्य रूप से शारीरिक चोट पहुचना एवं उनपर तेजाब फेकना आईपीसी धारा-428, 429 के तहत एक अपराध है।

४. अगर किसी भी पशु की किसी वाहन द्वारा दुर्घटना होती है तो नजदीकी पुलिस- स्टेशन पर उस वाहन संख्या के पहचान के आधार पर एफ. आई. आर. दर्ज करने का प्रावधान है। 

५. शोध हेतु इन आवारा पशुओं का प्रयोग पूर्ण-रूप से वर्जित है। 

६. मवेशियो से उत्पादन न प्राप्त होने की स्थिति में  उन्हें सड़क पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए, क्योंकि वे अक्सर प्लास्टिक, लोहे की किल तथा लोहे की तार खा जाते हैं। 

आवारा पशुओं का प्रबंधन 

आवारा पशुओं के भटकाव से होने वाली दुर्घटनाओं को रोकने के लिए शहर के बाहर परती भूमि या सरकारी स्थान पर इन पशुओं को रखा जा सकता है , उनके गोबर एवं मूत्र द्वारा पंचगव्य का निर्माण किया जा सकता है। जो मवेशी अस्वस्थ हैं, उनके लिए चिकित्सकों का एक समूह बना कर एक विशेष अधिकारी की नियुक्ति की जानी चाहिए जो सुनिश्चित  कर सके कि पशुओं की उस स्थान पर उचित चिकित्सा प्राप्त हो अन्यथा उन्हें पशु प्रबंधन केंद्र में भेज देना चाहिए।

मवेशियों के दीर्घकालिक प्रबंधन हेतु समर्पित दल का निर्माण किया जाना चाहिए जो स्थानीय निवासियों के साथ मिलकर सौहाद्रपूर्ण ढ़ंग से कार्य करे, इसके लिए निम्न-लिखित बातों को ध्यान देना चाहिए। 

१.  मवेशियों की संख्या को जानने के लिए वैज्ञानिक सर्वेक्षण का उपयोग करें।

२.  आवारा पशुओं के प्रवास एवं भ्रमण, दूरी एवं दिशा की जानकारी एवं निगरानी के लिए जी.पी.एस. का उपयोग करें।

३. नर पशुओं का बंध्याकरण एवं मादा पशुओं को शल्य- चिकित्सा और रासायनिक नसबंदी द्वारा बाँझ बनाना बहुत जरूरी है, ताकि उनकी आबादी पर काबू पाया जा सके। एक गाय द्वारा प्रति-दिन 250 से 500 लीटर मीथेन का उत्पादन होता है तथा वैश्विक स्तर ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में में भारत की भागीदारी 15.1 प्रतिशत है। 

५. आवारा पशुओं के कारन होने वाले दुर्घटना एवं अन्य समस्या वाले क्षेत्र से आवारा मवेशियों को दूसरी जगह स्थानांतरित किया जाना चाहिए।

६. सड़कों के दोनों तरफ लोहे के तार और बाँस के बाड़ से घेरा- बंदी की जानी चाहिए।

७. इन आवारा पशुओं को पुन: पालने और उत्पादकता बहाल करने की संभावनाओं पर जोर देना चाहिए। 

८. शहरी क्षेत्रो के आस-पास मवेशी, सुअर और घोड़े पालने पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए।

९. शहरी क्षेत्रों में मवेशियों को पलने के लिए लाइसेंस प्रनाली होनी चाहिए। 

१०. लोगों को आवारा पशुओं का प्रबंधन और नियंत्रण हेतु प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। 

११. आवारा पशुओं के पुनर्वास हेतु अधिक गोसदन और गोशाला की स्थापना होनी चाहिए। 

१२. पशु कल्याण निधि की स्थापना तथा उसके लिए मुद्रा संकलन में बढ़ोतरी होनी चाहिए। 

१३. शहरों के आस-पास सभी गौ- पालको को अपने मवेशियों को रस्सी द्वारा बाँध कर रखना चाहिए तथा पशुओं को खुला छोड़ने पर उनसे दंड-राशि लेने का प्रावधान होना चाहिए। 

१४. गोकुल- ग्राम के एक झुण्ड में न्यूनतम ४० प्रतिशत आवारा पशु तथा अन्य ६० प्रतिशत उत्पादक पशु होने चाहिए ताकि देशी- नस्लों को बचाया जा सके। 

राज्य सरकारों द्वारा इस दिशा में कुछ सराहनीय प्रयास किये गए हैं जैसे, राजस्थान राज्य सरकार ने भटक गए पशुओं के रखरखाव के लिए प्रति दिन 50 रुपये प्रति पशु का प्रोत्साहन दिया है। "इनके रख- रखाव की व्यव्यस्था राजमार्गों के पास होना चाहिए जहां भटक गए मवेशियों को ठहराया एवं सूचीबद्ध किया जा सके।उत्तर प्रदेश राज्य में  मौजूदा 426 गोशाला के अलावा  पांच गाय अभयारण्यों की स्थापना की प्रक्रिया शुरू की गई है। दिल्ली सरकार ने लगभग 150 कर्मचारियों को भटक गायों को पकड़ कर लाने के लिए नियुक्त किया है, जिनकी जिम्मेदारी प्रतिदिन १० आवारा गायों को  शहर के विभिन्न हिस्सों से पकड़ कर लाना है।

निष्कर्ष 

आवारा पशुओं को समाज पर बोझ नहीं समझना चाहिए। इन्हें वैज्ञानिक तरीके से उचित प्रबंधन द्वारा नियंत्रित करना चाहिए क्योंकि ये अत्यधिक तापमान को झेलने में सक्षम है और हमारे पर्यावरण में जैव- विविधता को बनाये रखने में योगदान से सकते है।  

विकाश कुमार, सुनील कुमार

डेरी विस्तार विभाग, राष्ट्रीय डेरी अनुसन्धान संस्थान

करनाल