थनैला रोग

Pashu Sandesh, 09 Jan 2023

डॉ॰ अंकित जैन, डॉ॰ जोयसी जोगी, डॉ॰ राखी गांगिल, डॉ॰ दलजीत छाबरा, डॉ॰ राकेश शारदा, डॉ॰ रवि सिकरोडिया, डॉ॰ विशाल प्रजापति, डॉ॰ प्रशांत प्रजापति

पशु सूक्ष्मजीवी विज्ञान विभाग,

पशुचिकित्सा एवं पशुपालन महाविद्यालय, महू

थनैला दुधारू गाय, भैंस एवं बकरी के अयन की एक मुख्य संक्रामक बीमारी है। जिन देशों में डेरी व्यवसाय बहुत उन्नतशील होता है वहां इस रोग से अधिक हानि होती है। प्रथम व्यॉत के पशुओं में 5 प्रतिशत और अधिक बार के ब्याए हुए पशुओं में 80 प्रतिशत तक पाई जाती है। मैस्टाइटिस अर्थात थनैला रोग मुख्य रूप से गाय, भैंस, बकरी का रोग है यद्यपि इससे पशु की मृत्यु नहीं या बहुत कम होती है लेकिन पशु के दूध देने की क्षमता आंशिक या पूर्ण रूपेण बंद हो जाती है। इस बीमारी में पशुओं के इलाज में अत्यधिक धनराशि खर्च होती है, उसके बावजूद इस बीमारी के ठीक होने की कोई गारंटी नहीं होती है। भैंसों की तुलना में गायों में यह रोग अधिक होता है। थनैला से पशुपालकों को देश का बहुत अधिक नुकसान होता है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में थनैला के कारण प्रतिवर्ष लगभग ₹ 70 करोड़ रुपए का नुकसान होता है। मानव स्वास्थ्य की दृष्टि से भी यह थनों के संक्रमण से दूध के रास्ते ट्यूबरकुलोसिस, ब्रूसेलोसिस, गैस्ट्रोएंट्राइटिस, स्कारलेट फीवर, अर्थात सेप्टिक शोर थॉट जैसे रोग पशुओं से मनुष्य में फैल जाते हैं। 

रोग के कारण

  1. स्ट्रैप्टॉकोक्कस जिसमें स्ट्रैप्टॉकोक्कस एगैलेक्सिया मुख्य है।
  2. कोरायनीबैक्टीरियम पायोजीनीस
  3. स्टेफाइलोकोकाई की प्रजातिया
  4. माइकोबैक्टेरियम ट्यूबरक्लोसिस
  5. ई. कोलाई
  6. फ्यूजीफार्मीस नैक्रोफोरस

उपरोक्त जीवाणुओं के अतिरिक्त पशुओं के रखरखाव में लापरवाही भी इस रोग के लिए जिम्मेदार है। पशु बांधने की जगह पर गंदगी,गंदे हाथों से दूध निकालना, थनों पर कट, घाव, गंदगी इत्यादि होने से थनैला रोग की संभावना बढ़ जाती है। थनैला रोग गाय, भैंस के अतिरिक्त बकरी, भेड़ व घोड़ी में भी पाया जाता है परंतु गायों में सबसे अधिक होता है। गायों में भी देसी नस्ल की गायों की तुलना में संकर नस्ल की गायों में थनैला अधिक होता है अर्थात जो पशु दूध अधिक देते हैं वह अधिक संक्रमित होते हैं। ब्याने के बाद कुछ दिनों में तथा व्यात के आखिरी दिनों में रोग अधिक होता है। थनों में दूध बच जाने या पूरी तरह नहीं निकलने से रोग की संभावना अधिक होती है। जहां पशुओं की संख्या अधिक हो वहां रोग की संभावना भी अधिक होती है। जिन प्रजातियों में अयन तो छोटी परंतु थन लंबे होते हैं उनमें रोग की संभावना । जहां गंदगी अधिक रहती है और दूध सफाई से नहीं निकाला जाता है तथा थनों पर घाव रहते हैं उन में थनैला अधिक होता है। गाय भैंस में यह रोग अधिकतर स्ट्रेप्टोकोक्कस एगैलेक्सिया जीवाणु द्वारा उत्पन्न होता है।

रोग का वर्गीकरण

थनैला रोग के लक्षणों के आधार पर निम्न तीन भागों में बांटा गया हैः

  1. तीव्र थनैला
  2. कम तीव्र थनैला
  3. दीर्घकालिक थनैला

1 तीव्र थनैला रोग 

रोग फैलने की विधिः 

किसी थन में घाव या खरोच होने के कारण वातावरण में उपस्थित जीवाणु प्रवेश पा जाते हैं।

कारण

यह रोग कोरायनीबैक्टेरियम, स्टेफाइलोकोकाई इत्यादि से होता है, कभी-कभी स्ट्रैप्टॉकोक्कस एगैलेक्सिया जीवाणु से भी हो जाता है।

लक्षण

रोग के लक्षण कम समय में ही ज्ञात हो जाते हैं। इसमें पशु को बुखार होता है एवं वह जुगाली करना बंद कर देता है।अयन के एक या अधिक भाग में सूजन हो जाती है। जिस भाग में रोग होता है वह गर्म, लाल, सूजात था मुलायम पाया जाता है। यह अवस्था ब्यात मैं किसी भी समय हो सकती है परंतु बच्चा होने के बाद  ही अधिकांश यह रोग उत्पन्न होता है।

जब रोग कोराइनीबैक्टीरियम पायोजिनीज नामक जीवाणु द्वारा होता है तो थन से गाढ़ा, हल्का पीला रस युक्त दुर्गंध वाला स्राव निकलता है। यह थन को खींचने पर बड़ी कठिनाई से निकलता है। कभी-कभी यह फोड़े का रूप धारण कर लेता है और फोड़ा बनकर बाहर की ओर फूट जाता है। इसमें कभी-कभी पशु की मृत्यु भी हो जाती है । इस प्रकार कीअवस्था अधिकांश सूखी गायों में पाई जाती है अतःइसे गर्मियों का थनैला रोग या समर मैस्टाइटिस कहतेहैं।

दूध वाली गायों में जब यह रोग स्टेटफाइलोंकोकस ऑरियस द्वारा होता है तो थन को दबाने से थोड़ी मात्रा में पतला, लाल, बादामी रंग का स्राव निकलता है। अयन में गलन शुरू हो जाती है। पशु की मृत्यु अयन में विषैली दशा, अर्थात टॉक्सीमिया के कारण हो सकती है।

स्ट्रेप्टोकोक्कस की प्रजातियों द्वारा रोग के लक्षण साधारण रोग के लक्षणों के समान होते हैं। यह अधिक भयंकर नहीं होते हैं। इसमें थन से पीलापन लिए हुए द्रव निकलता है जिसमें दूध के थक्के अधिक पाए जाते हैं। जब यह रोग स्ट्रेप्टोकोक्कस पायोजेनेस नामक जीवाणु द्वारा होता है तो मनुष्यों को भी इस बीमारी का भय होता है क्योंकि मनुष्य में इस जीवाणु द्वारा स्कारलेट फीवर तथा गले की सूजन अर्थात सेप्टिक सोर थ्रोट नामक रोग हो जाते हैं। जब अयन में तीव्र सूजन होती है तो ऐसा अयन फिर कभी कार्य नहीं करता है।

2. कम तीव्र थनैला रोगः

कारण

यह तीव्र थनैला रोग से कम घातक होता है इस प्रकार की थनेला बीमारी स्ट्रेप्टोकोक्कस जीवाणु से होती है इस प्रकार की रोग की अवस्था में सभी लक्षण प्रकट नहीं होते हैं और नहीं स्तन ग्रंथियों में अधिक सूजन होती है जैसा कि तीव्र थनैला रोग में होता है। रोग जल्दी प्रारंभ होता है और अयन थोड़ा सा फूल जाता है। थनों से पीला द्रव निकलता है। जिसमें काफी मात्रा में छिछड़े पाए जाते हैं।

3. दीर्घकालिक थनैला रोग

इस प्रकार की रोग की अवस्था स्ट्रैप्टॉकोक्कस एगैलेक्सिया नामक जीवाणु से होती है। अधिकतर रोग लगभग 90 प्रतिशत इसी जीवाणु द्वारा होता है। यह जीवाणु केवल गाय और भैंस मैं ही दीर्घकालीन थनैला रोग उत्पन्न करता है। इसके अतिरिक्त अन्य पशुओं के लिए यह उतना हानिकारक नहीं है।

रोग फैलने की विधि

स्ट्रैप्टॉकोक्कस एगैलेक्सीया द्वारा प्रायः छूत वाले पदार्थों के थनों के संपर्क में आने से होता है। साथ ही ग्वाले के हाथों से पशु के बिछावन, मिट्टी, दूध निकालने की मशीनों के, प्यालो से यह रोग फैलता है। इसके अतिरिक्त थनों पर बच्चे द्वारा काट लेने से घाव होने से फट जाने से अथवा मशीनों द्वारा दूध निकालने पर घाव होने से भी जीवाण इसमें प्रवेश पा जाते. काट लेने से घाव होने से, फट जाने से अथवा मशीनों द्वारा दूध निकालने पर घाव होने से भी जीवाणु इसमें प्रवेश पा जाते. हैं। रोग ग्रस्त दूध पिलाने से बच्चों में यह रोग फैलता है।

रोग के लक्षण

यह रोग बच्चा उत्पन्न होने के तुरंत बाद या दूध देने की किसी भी अवस्था मे हो सकता है। जब पशु का दूध सूखने लगता है तब भी यह रोग हो जाता है। यह बीमारी बहुत धीरे-धीरे प्रकट होती है और शीघ्र पहचान में नहीं आती है। प्रथम पहचान यह है कि दूध में छोटी-छोटी फुटक अधिक आने लगती है। बाद में दूध पतला हो जाता है। यह अवस्था दूध निकालते समय पता नहीं चलती है। कुछ दिनों में दूध अधिक पतला हो जाता है। यह अवस्था दूध निकालते समय पहचान में आती है। कुछ दिनों में दूध अधिक पतला हो जाता है और फुटक, अधिक मात्रा में आने लगते हैं। पहले अयन बड़ा और सख्त मालूम होता है। यह अवस्था काफी समय तक चलती है। बाद थन सूज जाता है जो गर्म और छूने पर पशु को दर्द देता है। दूध रुक जाता है। थन दिन पर दिन और सूजता जाता है। दूध का रंग पीलापन लिए होता है। दूध की मात्रा घट जाती है एवं कभी-कभी थन से बिल्कुल दूध नहीं निकलता है ।

रोग का परीक्षण

  1. रोग लक्षण परीक्षणः रोग की पहचान करने से पहले संपूर्ण दूध निकाल लिया जाए और इसके बाद, थनों को चारों ओर घुमाकर देखा जाए। यदि थनों के आकार और आकृति में भिन्नता है तो पशु को रोग है। रोग ग्रस्त थनों को दोनों हथेलियों के बीच दबाकर देखा जाए। यदि अधिक मोटा और कड़ा है तो रोग की उपस्थिति प्रतीत होती है।
  2. स्ट्रिप कप जांचः एक एलुमिनियम का गोल प्याला होता है जिसके ऊपर एक गोल काले रंग का ढक्कन होता है जिसे पृथक किया जा सकता है। इस ढक्कन के एक सिरे पर कुछ छिद्र होते हैं जिसके रास्ते दूध अंदर चला जाता है। इस प्याले मैं थनों का दूध अलग-अलग करके निकालते हैं। जिस थन में रोग होता है उसके प्रारंभ में दूध में छीछड़े इस ढक्कन में आसानी से देखे जा सकते हैं।
  3. सूक्ष्मदर्शी परीक्षणः रोग ग्रस्त थन से दूध लेकर उसका उपकेंद्रण अर्थात सेंट्रीफ्यूज करते हैं फिर इसकी सूक्ष्मदर्शी द्वारा परीक्षा करते हैं रोग के जीवाणु यथा स्ट्रैप्टॉकोक्कस एगैलेक्सिया लंबी लंबी श्रृंखलाओं में श्वेत रक्त कणों के साथ दिखाई पड़ते हैं। दूध में श्वेत रक्त कणों की संख्या भी अधिक बढ़ जाती है।

रासायनिक परीक्षणः

  1. ब्रॉन क्रिसोल जांचः रोगी पशु के दूध की, अम्लीय ता घट जाती है और यह छारीय पाया जाता है। इस परीक्षण को ब्रान क्रिसोल पर्पल अथवा ब्रोमोथाइमोल ब्लू इंडिकेटर की सहायता से कर सकते हैं।
  2. ब्रान क्रिसाल पपल अथवा ब्रामाथाइमाल ब्लू इाडकटर का सहायता से कर सकत है ।
  3. क्लोराइड की मात्रा की जांचः इस रोग के दूध में क्लोराइड की मात्रा बढ़ जाती है तथा लेक्टोज की मात्रा घट जाती ळें

रोकथाम और बचाव

  1. रोगी पशुओं को पशुशाला के अंतिम भाग में बांधना चाहिए। जो ठीक हो उन्हें पहले तथा जिन पर संदेह हो उन्हें बाद में और सबसे अंत में रोगी पशु को दुहा जाना चाहिए।
  2. दूध दुहने वाली मशीनों के प्रत्येक भाग को दुहने से पहले और बाद में जीवाणु रहित कर देना चाहिए।
  3. थनों को पोछने वाला कपड़ा स्वच्छ रखना चाहिए और प्रत्येक दिन मैं बदलते रहना चाहिए।
  4. पशुओं को दोहने से पहले चारों थनों का दूध स्ट्रिप कप से निकालकर देख लेना चाहिए।
  5. सभी दूध देने वाली गायों एवं भैंसों के दूध की जीवाणु परीक्षा करनी चाहिए।
  6. खरीदी गई बछिया और गायों की परीक्षा करनी चाहिए उसके पश्चात ही उन्हें झुंड में मिलाना चाहिए।
  7. हर पशु की प्रत्येक बयात की परीक्षा करनी चाहिए।
  8. जो मनुष्य रोगी पशुओं की देखभाल करता है उसे स्वस्थ पशुओं को नहीं दुहना चाहिए।
  9. दूध दुहने से पहले, एवं बाद में थन और अयन को लाल दवा अर्थात पोटेशियम परमैग्नेट के 1:1000 के घोल से धोना चाहिए।
  10. थनैला की थोड़ी सी भी आशंका होने पर शीघ्र अति शीघ्र उपचार शुरू कर देना चाहिए अन्यथा बाद में इलाज करने पर अयन में पूरी तरह सामान्य रूप से दूध नहीं बन पाता है और दुग्ध उत्पादन कम हो जाता है।
  11. समय पर उपचार न होने पर थनैला के साथ टी.बी.के, जीवाणु भी अंदर प्रवेश कर जाते हैं जिससे रोग अधिक गंभीर हो जाता है।

रोग का उपचार

1. कोई भी प्रतिजैविक औषधि देने से पहले दूध की एंटीबायोटिक सेंसटिविटी जांच जरूर कराएं ताकि थनों से संक्रमण जल्दी समाप्त हो सके।

2. थन से खराब दूध पूरी तरह निकाल कर दिन में एक बार एंटीबायोटिक ट्यूब चढ़ाएं। यदि संक्रमण अधिक हो तो सुबह शाम दो बार चढ़ाएं। जिस एंटीबायोटिक की ट्यूब थन में चढ़ाई जाती है उसी का इंट्रावेनस या इंट्रा मस्कुलर इंजेक्शन लगाएं। प्रभावी उपचार हेतु कम से कम 5 दिन तक औषधि का उपयोग करें।

3. तीव्र थनैला में जब अयन गर्म होता है उस अवस्था में ठंडे पानी से या बर्फ से सिकाई करें। परंतु दीर्घकालीन थनैला में जब अयन ठंडा तथा कठोर होता है उस अवस्था में हल्के गुनगुने पानी से सिकाई करें इसके लिए मैग्नीशियम सल्फेट का भी प्रयोग कर सकते हैं।

4. जब इस इलाज से कोई खास फर्क नहीं पड़े तो संबंधित थन के क्वार्टर में 5 प्रतिशत कॉपर सल्फेट घोल या तीन परसेंट सिल्वर नाइट्रेट घोल को थन के अंदर अयन तक चढ़ाया जाता है ताकि वह क्वार्टर हमेशा के लिए पूरी तरह सूख जाए और दूसरे क्वार्टर में नुकसान ना हो।

5. थनैला दूध देने वाले पशुओं की अत्यंत भयंकर बीमारी है इसमें स्वयं से इलाज करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए अतः इसका उपचार कुशल पशु चिकित्सक के द्वारा ही कराना चाहिए।

संदर्भ

1. वेटरनरी प्रीवेंटिव मेडिसिन द्वारा अमलेंदु चक्रवर्ती।

2. मर्क्स वेटरनरी मैनुअल