पशु संदेश , 13 जून 2018
डा ज्योत्सना शक्करपुडे, डा अर्चना जैन, डा प्रगति पटेल, डा सुमन संत, डा श्वेता सिंह चौहान
कुक्कुट पालन के समान बत्तख पालन का इतिहास भी भारत में काफी पुराना है परन्तु अभी तक बत्तख पालन एक व्यवसाय के रूप में स्थापित नहीं हो सका है वरन यह गांव एवं देहात के गरीब लोगों तक ही सीमित है |कुक्कुट पालन के क्षेत्र में हमारे देश में अभूतपूर्व उन्नति हुई है और इसके फलस्वरूप कुक्कुटपालन घरों के आंगन तक ही सीमित न रहकर उद्योग स्तर तक जा पहुँचा है| इस उद्योग के निरंतर वृद्धिरत रहने हेतु अन्य नस्लों के पक्षियों उदाहरनार्थ बत्तख बटेर गीज तथा टर्की पालन का समावेश होता अत्यंत महत्वपूर्ण है अनेक विकसित तथा विकासशील देशों में अंडा एवं मांस उत्पादन क्षेत्र में बत्तख पालन का योगदान महत्वपूर्ण है|
भारत में बत्तख पालन
हमारे देश में अंडा उत्पादन तालिका में मुर्गियों के पश्चात बत्तख का ही स्थान है वर्तमान समय में हमारे देश के पूर्वी तथा दक्षिणी क्षेत्रों में लम्बा समुद्र तट होने के कारण जल बहुल्य क्षेत्र बत्तखों के लिए प्राकृतिक आवास के रूप में उपलब्ध है,परंतु अभी भी लगभग 80 प्रतिशत बत्तख पालन ग्रामीण एवं लघु कृषक ही कर रहे हैं जो सुव्यवस्थित संचालन के तौर तरीकों से अनभिज्ञ हैं | इनके द्वारा पाली गई अधिकतर बत्तख देशी नस्ल की हैं जो प्राकृतिक विधि द्वारा आहार ग्रहण करती हैं और जिनकी अंडा उत्पादन क्षमता भी 130 से 140 अंडा प्रति पक्षी प्रतिवर्ष होती है वैज्ञानिक विधि द्वारा बत्तख पालन केवल कुछ ऐसी इकाइयाँ जो केंद्र सरकार द्वारा संचालित हैं और कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा ही किया जा रहा है |यद्यपि अंडा मांस उत्पादन हेतु मुर्गी पालन का स्तर स्थिर रहा है फिर भी हमारे देश के कुल राष्ट्रीय उत्पादन में बत्तख पालन का योगदान प्रतिवर्ष लगभग चार करोड़ रूपये रहा है
उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि बत्तख पालन क्षेत्र का विकास हमारे देश में अंडे तथा मासं की न्यूनतम आवश्यकताओं को पूर्ण करने की दिशा में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है|
बत्तख जाति ;नस्ल
बत्तख पालन आरम्भ करने से पूर्व अत्यंत आवश्यक है नस्ल का चुनाव जिस प्रकार मुर्गियों की विभीन्न जातियाँ हैं और उन्हें गुणों के आधार पर विभिन्न श्रेणियों में विभाजित किया गया है ,इसी प्रकार बत्तख को भी उनके गुण, रंग, जन्म स्थान आदि के आधार पर निम्नलिखित जातियों के अंतर्गत विभाजित किया गया है:
क .अंडा देने वाली जाति ;लेयर
ख .मासं वाली जाति ;ब्रोयलर
पेकिन, एलिसबरी, मस्कोवी ;6 उपजाति,आरफीगंटन ;5 उपजातिद्धए राउन इत्यादि
ग .शोभादायक जाति ;आरना मेंटल
काल मंडारिन,ईस्ट इन्डिय, डेका इत्यादि शोभादायक जाति आर्थिक कारणों को दृष्टिगत रखते हुए अधिक प्रचलित नहीं है |
बतखपालन शुरू करने के लिए शांत जगह बेहतर होती है | अगर यह जगह किसी तालाब के पास हो तो बहुत अच्छा होता है |क्योंकि बतखों को तालाब में तैरने के लिए जगह मिल जाती है,अगर बतखपालन की जगह पर तालाब नहीं है तो जरूरत के मुताबिक तालाब की खुदाई करा लेना जरूरी होता है| तालाब में बतखों के साथ मछलीपालन भी किया जा सकता है अगर तालाब की खुदाई नहीं करवाना चाहते हैं तो टीनशेड के चारों तरफ 2.3 फुट गहरी व चौड़ी नाली बनवा लेनी चाहिए, जिस में तैर कर बतखें अपना विकास कर सकती हैं| बतखपालन के लिए प्रति बतख डेढ़ वर्ग फुट जमीन की आवश्यकता पड़ती है इस तरह 5 हजार बतखों के फार्म को शुरू करने के लिए 3750 वर्ग फुट के 2 टीनशेडों की आवश्यकता पड़ती है इतनी ही बतखों के लिए करीब 13 हजार वर्ग फुट का तालाब होना जरूरी होता है|
प्रजाति का चयन
बतख पालन के लिए सब से अच्छी प्रजाति खाकी कैंपवेल है जो खाकी रंग की होती है ये बतखें पहले साल में 300 अंडे देती हैं ,2.3 सालों में भी इन की अंडा देने की कूवत अच्छी होती है तीसरे साल के बाद इन बतखों का इस्तेमाल मांस के लिए किया जाता है | इन बतखों की खासीयत यह है कि ये बहुत शोर मचाने वाली होती हैं |शेड में किसी जंगली जानवर या चोर के घुसने पर शोर मचा कर ये मालिक का ध्यान अपनी तरफ खींच लेती हैं|
इस प्रजाति की बतखों के अंडों का वजन 65 से 70 ग्राम तक होता है जो मुरगी के अंडों के वजन से 15.20 ग्राम ज्यादा है | बतखों के अंडे देने का समय तय होता है, ये सुबह 9 बजे तक अंडे दे देती हैं, जिस से इन्हें बेफिक्र हो कर दाना चुगने के लिए छोड़ा जा सकता है | खाकी कैंपवेल बतख की उम्र 3.4 साल तक की होती है जो 90-120 दिनों के बाद रोजाना 1 अंडा देती है
बतखों का आहार
बतखों के लिए प्रोटीन वाले दाने की जरूरत पड़ती है | चूजों को 22 फीसदी तक पाच्य प्रोटीन देना जरूरी होता है| जब बतखें अंडे देने की हालत में पहुंच जाएं तो उन का प्रोटीन घटा कर 18.20 फीसदी कर देना चाहिए |बतखों के आहार पर मुरगियों के मुकाबले 1.2 फीसदी तक कम खर्च होता है , उन्हें नालोंपोखरों में ले जा कर चराया जाता है, जिस से कुदरती रूप से वे घोंघे जैसे जलीय जंतुओं को खा कर अपनी खुराक पूरी करती हैं| बतखों से अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिए उन्हें अलग से आहार देना जरूरी होता है|वे रेशेदार आहार भी आसानी से पचा सकती हैं | बतखों को 20 फीसदी अनाज वाले दाने,40 फीसदी प्रोटीन युक्त दाने ;जैसे सोयाकेक या सरसों की खली, 15 फीसदी चावल का कना 10 फीसदी मछली का चूरा 1 फीसदीए नमक व 1 फीसदी खनिजलवण के साथ 13 फीसदी चोकर दिया जाना मुनासिब होता है| हर बतख के फीडर में 100.150 ग्राम दाना डाल देना चाहिए |
इलाज व देखभाल
बतखों में रोग का असर मुरगियों के मुकाबले बहुत ही कम होता है| इन में महज डक फ्लू का प्रकोप ही देखा गया है, जिस से इन को बुखार हो जाता है और ये मरने लगती हैं |बचाव के लिए जब चूजे 1 महीने के हो जाएं तो डक फ्लू वैक्सीन लगवाना जरूरी होता है इस के अलावा इन के शेड की नियमित सफाई करते रहना चाहिए और 2.2 महीने के अंतराल पर शेड में कीटनाशक दवाआें का छिड़काव करते रहना चाहिए |
बतख के साथ मछलीपालन और लाभ
जिस तालाब में बतखों को तैरने के लिए छोड़ा जाता है, उस में अगर मछली का पालन किया जाए तो एकसाथ दोगुना लाभ लिया जा सकता है| दरअसल बतखों की वजह से तालाब की उर्वरा शक्ति में इजाफा हो जाता है| जब बतखें तालाब के पानी में तैरती हैं ,तो उन की बीट से मछलियों को प्रोटीनयुक्त आहार की आपूर्ति सीधे तौर पर हो जाती है जिस से मछलीपालक मछलियों के आहार के खर्च में 60 फीसदी की कमी ला सकते हैं|
इस तरह बतखपालन से काफी लाभ कमाया जा सकता है| बतख के अंडों को बेचने में किसी तरह की परेशानी नहीं होती है| इन्हें दवाएं बनाने के लिए भी खरीदा जाता है| बतख न केवल लाभ देती है, बल्कि यह सफाई बनाए रखने में भी योगदान देती है| मात्र 5.6 बतखें ही 1 हेक्टेयर तालाब या आबादी के आसपास के मच्छरों के लारवों को खा जाती हैं| इस तरह बतखें न केवल लाभदायी होती हैं, बल्कि ये मनुष्य की सेहत के लिए भी कारगर होती हैं |बतखपालन का काम बेरोजगार युवाओं के लिए आय का अच्छा साधन साबित हो सकता है |मुरगीपालन के मुकाबले बतखपालन कम जोखिम वाला होता है |बतख के मांस और अंडों के रोग प्रतिरोधी होने के कारण मुरगी के मुकाबले बतख की मांग अधिक है| बतख का मांस और अंडे प्रोटीन से भरपूर होते हैं |बतखों में मुरगी के मुकाबले मृत्युदर बेहद कम है, इस का कारण बतखों का रोगरोधी होना भी है| अगर बतखपालन का काम बड़े पैमाने पर किया जाए तो यह बेहद लाभदायी साबित हो सकता है |