Pashu Sandesh, 02 March 2022
डॉ. विशम्भर दयाल शर्मा, डॉ. सूर्य प्रताप सिंह परिहार, डॉ. गया प्रसाद जाटव, डॉ. सुप्रिया शुक्ला, डॉ. निधि श्रीवास्तव, डॉ. जयवीर सिंह
पशु विकृति विज्ञान विभाग, पशु चिकित्सा एवं पशु पालन महाविद्यालय, (नानाजी देशमुख पशु चिकित्सा विश्वविद्यालय जबलपुर), महू (म.प्र.)
परिचय :-
संक्रामक श्लेषपुटी (बर्सल) रोग (आई बी डी), यह रोग मुख्यतः मुर्गियों में देखा जाता है। पिछले कई दशकों से यह रोग मुर्गियों की मृत्यु का मुख्य कारण रहा है। यह बीमारी मुर्गियों की प्रतिरक्षा तंत्र को क्षीण कर देती है। मुख्यतः यह युवा मुर्गियों में पानी जाने वाली बीमारी है । यह बीमारी मुख्य रूप से लिम्फोइड (लसिकावत) अंगों को प्रभावित करती है, जैसे की बर्सा ऑफ फेब्रिसियस में पायी जाने वाली लिंफोइड (लसीकावत) कोशिका| जिसके परिणामस्वरूप लसिकावत की मुर्गियों में कमी हो जाती है और बर्सा धीरे - धीरे नष्ट हो जाती है ।
युवा मुर्गियाँ जिनकी उम्र 3 सप्ताह से 6 सप्ताह के मध्य होती है, वे इस रोग के विषाणु के लिए अतिसंवेदनशील होती है। यह युवा मुर्गियों में पाया जाने वाला एक बहुत ही तीव्र संक्रामक रोग है।
रोगकारक :-
यह एक विषाणु जनित रोग है जो कि मुख्यतः बिरना वायरस से होता है। यह विषाणु बिरनाविरीडी परिवार (फैमिली) मे आता है। यह एक RNA (आरएनए) वायरस है जिसकी संरचना दोहरी किनारा, बिना ढका हुआ, विंशतिफलक कैप्सिड (पेटिका), दो विभाजित जीनोम जैसी होती है।
इस वायरस के मुख्यतः दो सीरोटाइप होते है :-
सीरोटाइप – 1 सीरोटाइप – 2
यह मुख्यतः रोगजनक होता है यह रोगजनक नहीं होता है
इसमें 50 प्रतिशत तक मृत्युदर पायी जाती है
यह बी लिम्फोसाईट (लसिकावत) की कोशिकाओं को संक्रमित करता है।
रोग का फैलना :-
यह रोग प्रत्यक्ष अंतःग्रहण से, संक्रमित मल मूत्र और पानी से फैलता है। यह संक्रमित पदार्थों से तथा भौतिक रोगवाहक जैसे जंगली पक्षी, मानव और कीट आदि से भी फैल सकता है।
रोगजनन (Pathogenesis) :-
यह विषाणु सर्वप्रथम मुख, नेत्र श्लेष्मा और श्वसन तंत्र के मार्ग से शरीर में प्रवेश करता है। वहाँ से विषाणु यकृत (लीवर) की कुफ्फर कौशिका तक पहुँच जाता है। उसके बाद विषाणु रक्त की कोशिकाओं पर आक्रमण कर देता है अर्थात रक्त में चला जाता है। तत्पश्चात् विषाणु रक्त के द्वारा दूसरे उत्तकों में वितरित कर दिया जाता है जैसे - छोटी आंत्र, सीकल गलतुंडिका (टॉन्सिल), बर्सा आदि ।
बर्सा में यह विषाणु लगातार अपनी संख्या बढ़ाता रहता है एवं बर्सा, प्लीहा और सीकल टॉन्सिल में लसीकावत कोशिकाओं को लगातार नष्ट करता रहता है। यह विषाणु मुख्य रूप से B - लसिकावत कोशिकाओं को नष्ट करता है और T - लसिकावत कोशिकाएँ इस से प्रभावित नहीं होती है। धीरे-धीरे बर्सा का आकार बढ़ता चला जाता है और किडनी (गुर्दा) में यूरेट्स क्रिस्टल जमा होता चला जाता है। बर्सा में लसीकावत कूपों की कमी होती चली जाती है और इस प्रकार प्रतिरक्षा तंत्र धीरे-धीरे क्षीण होता चला जाता है। यह विषाणु रक्त के थक्का बनने के समय को भी बढ़ा देता है और इस प्रकार यह रक्त के थक्का बनने की प्रक्रिया को भी प्रभावित करता है ।
लक्षण :-
मुर्गियों में इसके इस रोग के कई लक्षण देखने को मिलते हैं –
विभिन्न अंगों में विक्षति (Lesions) :-
उपचार एवं रोकथाम ;-
यह एक विषाणु जनित बीमारी है। इसका पूर्ण रूप से ईलाज संभव नहीं है। लेकिनफिर भी इसका लक्षण आधारित उपचार किया जा सकता है । इस बीमारी को अन्य मुर्गियों में फैलने से रोकने के लिए एवं नियंत्रण के लिए निम्नलिखित उपाय जरूर करने चाहिए –
मुर्गियों के प्रतिरक्षा तंत्र को मजबूत करने के लिए समय - समय पर उनका टीकाकरण अवश्य कराना चाहिए ताकि सभी मुर्गियों की अन्य बीमारियों से सुरक्षा की जा सकें ।
उचित टीकाकरण ही बचाव एवं उपचार का माध्यम होता है ।