Pashu Sandesh, 09 March 2022
डॉ.रवि कुमार खरे (सहायक प्राध्यापक), डॉ. रिनेश कुमार (प्राध्यापक), डॉ. आलोक कुमार दीक्षित (सह प्राध्यापक), डॉ. आलोक कुमार सिंह (सहायक प्राध्यापक)
पशु परजीवी विज्ञान विभाग, पशु चिकित्सा विज्ञान एवं पशुपालन महाविद्यालय, रीवा (म.प्र.)
रोगकारक-
भारत में गाय एवं भैंसों के बछड़ों की मृत्यु दर के लिए टोक्सोकारा विटूलोरम गोलकृमि को एक महत्वपूर्ण कारण माना गया है। यह रोग अधिकतर एक साल से छोटे बछड़ो में होता है। इस परजीवी को जुगाली करने वालों पशुओं की आंत का बड़ा गोलकृमि भी कहते हैं। यह रोग अधिकतर जन्म के 7-10 दिन से लेकर 4-6 माह तक की आयु वाले बछड़ो में अधिकतर पाया जाता है ।
रोग का प्रसारण-
रोग-जनकता -
यह परजीवी पशु की आंत में पहुंच कर अपनी दूसरी लार्वल अवस्था से बाहर निकल कर शरीर के बिभिन्न हिस्सों में विस्थापित होते है और बिलुप्त अवस्था में छुप जाते है जब मादा पशु गर्भवती होती है तो यह लार्वा पलायन करके या तो भ्रूण में चले जाते है या फिर स्तनग्रंथियों में पहुंच जाते है, ऐसा 7-8 माह की गर्भावस्था में होता है।जन्म के बाद ये लार्वा दूध के साथ बछड़ों की छोटी आंत में पहुंच जाते है और 3-4 सप्ताह में यह लार्वा वयस्क में बदल जाते है तथा रोग उत्पन्न करते है।
यदि बछड़ो में संक्रमण कम हुआ है तब रोग का पता नहीं चलता है, परन्तु भारी मात्रा में संक्रमण होने पर (लगभग 300-400 परजीवी प्रति बछड़ा) से भारी नुकसान के साथ-साथ बछड़ों की मृत्यु भी हो सकतीहै।यह पर जीवी बछड़े की छोटी आंत में पाये जाते है, जिससे पाचन बिकार उत्पन्न होने से पशु का स्वास्थ बिगड़ने लगता है।कभी-कभी यह गोल कृमि झुण्ड के रूप में एकत्रित होकर छोटी आंत मेंअवरोध पैदा करतेहै।इसके अलावा पशु के भ्रूण अवस्था में परजीवी के लार्वा शरीर के बिभिन्न अंगो में पलायन के कारण कई अंगो को गंभीर रूप से छतिपहुंचातेहै।
रोग के लक्षण-
रोग का निदान-
रोग के अनुसार. एमल परीक्षण एवं शव परीक्षण से इस रोग का निदान किया जाता है।
रोग का उपचार-
रोग की रोकथाम-