पशुओ की सामान्य बीमारियाँ एवं उसका प्रबंधन

पशु संदेश, 09 Feb 2022

डॉ अर्पिता श्रीवास्तव, डॉ नीरज श्रीवास्तव, डॉ धर्मेन्द्र कुमार, डॉ बालेश्वरी दीक्षित, डॉ राजीव रंजन, डॉ अमित कुमार झा  डॉ शेख. टी.जे

पशुचिकित्सा एवं पशुपालन महाविघलय रीवा

संक्रमण, प्रतिरोधक क्षमता तथा संक्रमण के बीच लड़ाई है जो खुली आंखों से देखी जा सकती है तथा जो लक्षण दिखाई देते हैं उनमें शरीर का तापक्रम बढ़ना,सुस्ती,खाना छोड़ देना तथा मामूली दस्त और श्वांस लेने में तकलीफ इत्यादि शामिल है।

बीमारी का संक्रमण किस प्रकार होता हैः-

निम्नासार 6 कारण संक्रमण के लिए उत्तरदायी हैं जो बड़ी सरलता तथा सफलतापूर्वक पषुओं में बीमारी का विकास करते हैं:-

कारण के कारक (अ)जीवाणु (ब) विषाणु (स) परजीवी

स्त्रोत या भंडार जो कारण के लिए उपयोग होते हैं।

(अ) मनुष्य (ब) पशु (स) वातावरण

उदाहरण के लिए सियार रेबीज बीमारी,चूहे- टाइफाईड हेजा-स्त्राव तथा मलमूत्र इत्यादि।

वह साधन जिससे बीमार का कारक स्त्रोत से बाहर निकलता है।

अन्य कारणों से यहाँ वहॅा फैलाव या प्रसारण जो भंडार से बीमार होने वाले तक पहुंचता है।

किसी भी अन्य कारणों से बीमारी पैदा करने वाले कारकों द्वारा बीमार होने वाले जीव के अंदर प्रवेश करना।

ऐसे पशु जिनमें बीमार का कारक उपस्थित रहता है जिसमें कुत्ते, पशु,सूकर घोड़े,मुर्गियॅा इत्यादि।

संक्रामक रोग-

एन्थ्रेक्स:-

यह रोग बेसिलस एन्थ्रेसिस नामक जीवाणु से होता है। यह पशु के शरीर में त्वचा में घाव द्वारा और दूषित आहार के द्वारा होता है। इस रोग का मुख्य लक्षण शरीर के नैसर्गिक छिद्र मुख, नाक एवं मल द्वार से खून निकलता है। गर्दन, धानी में सूजन आ जाती है। यक या दो दिन में पशु की मृत्यु हो जाती है।

उपचार:- पेनिसिलीन और टेट्रासाइक्लिक दवाईयॅा देते हैं।

गलघोंटू (एच.एस.)- य रोग जीवाणु से होता है। यह रोग एक पशु से दूसरे पशु में दूषित आहार एवं पानी के द्वारा फैलता है। यह तीन रूप में मिलता है। (1) त्वचा रूप- जिसमें पशु को तेज बुखार, निचजे जबड़े एवं गले में सूजन एवं सॅा लेने में कठिनाई होती है। और घुर्र-घुर्र की आवाज आती है। (2) अॅात रूप- जिसमें शारीरिक तापमान 104°  िसे 108°  िहो जाता है। पशु कमजोर एवं खाना-पीना छोड़ देता है। (3) फेफड़ा रूप-  पशु में निमोनिया जैसे लक्षण एवं सॅास जल्दी-जल्दी व गहरी लेता है।

उपचारः- सल्फाडिमीडीन देते हैं।

एक टंगिया (बी क्यू):- यह जीवाणु जनित रोग है जो कि क्लास्ट्रीडियम चौवाई से होता है। यह मुख्यतः तीन वर्ष से कम उम्र के पशु में होता है। इसमें पशु को तेज बुखार, पिछले पुट्ठों में सूजन हो जाती है। सूजन गर्म एवं दबाने पर चर-चराहट की आजाव होती है। पशु 12 घंटे से 2 दिन में मर जाता है।

उपचार:- पेनिसिलीन इंजेक्शन मॅंास में लगाते हैं।

brucelosis:- ब्रुसेला एबारटस नामक जीवाणु से यह रोग होता है। इसमें गर्भावस्था में 5-8 माह की अवस्था में गर्भपात होता है। गर्भाशय में सूजन एवं जेर नहीं गिरता है।

उपचार:- कोई असरदार दवा नहीं है।

टिटनेस - क्लासट्रिडियम टेटेनाई नामक जीवाणु से होता है। यह जीवाणु शरीर में घाव आदि से प्रवेश करते हैं। पशु के सिर व पिछले भाग में अकड़न, आहार निगलने में परेशानी एवं मुॅंह से लार गिरती है।

उपचारः- ए.टी.एस. 3 लाख यूनिट मंास में एवं इंजेक्शन नोवलजीन देते हैं।

खुरपका-मुहपका रोग- यह रोग विषाणु ए.ओ.सी.,एशिया एवं एशिया 2 के कारण होता है। यह रोग हवा, पानी,लार ग्रसित पशु के संपर्क एवं इस्तेमाल की गई वस्तुअओं से फैलता है। पशु को तेज बुखार,मुह,खुर,जीभ,मसूड़े एवं थनों में फफोले हो जाते हैं जो फूटकर घाव बन जाते हैं। मुह में लार गिरने लगती है।

उपचार - घाव को एक प्रतिशत पोटेशियम परमैगनेट से धोना चाहिए। उसके पश्चात मुह, मसूड़े में बोरोग्लीसरीन लगाना चाहिए। इंजेक्शन आक्सीटेट्रासाइक्लीन देना चाहिए।

पाक्स (माता चेचक):- यह छूत की बीमारी है जो कि विषाणु द्वारा फैलती है पशु को हल्का बुखार,शरीर के बाल रहित भागों जैसे मुह,थन, एवं योनि में लाल रंग की फुंसिया निकल आती हैं।

उपचार:- घाव को 0.1 पोटेशियम परमैगनेट घोल से धोना चाहिए। तोरेक्सेन, हीमेक्स क्रीम लगाना चाहिए।

बबेसिओसिस (लाल पेशाब)- बबेसिया बिजेमिना नाम परजीवी से होता है इसमें तेज बुखार 105°F से 108°F पेशाब लाल,काला झागयुक्त हो जाता है। 4 से 5 दिन में पशु की मृत्यु हो जाती है।

उपचारः- बेरेनिल इंजेक्शन या ट्रिपेन ब्लू इंजेक्शन देते हैं।

ट्रिपेनोसोमिटसिस (सर्रा)- यह ट्रिपेनोसोमा इवेन्साई नामक परजीवी से होता है। पशु को तेज बुखार, जगह-जगह चक्कर लगाना या घूमना, गिर पड़ना, बैठ जाना,सुस्त एवं उदास हो जाना आदि जैसे लक्षण मिलते हैं।

उपचार:- ट्राइक्कीन या टिवेन्साई इंजेक्शन देते हैं।

एस्केरिएसिसः- यह छोटे बछड़े-बछड़ियों में अधिकतर होती है। इसमें पशु को दुर्गंध युक्त गोबर होती है। पेट दर्द एवं शरीर की बाढ़ रूक जाती है। शरीर में पानी एवं खून की कमी हो जाती है।

उपचारः- पिपराजीन देते हैं।

नेजल ग्रेयूलोमा:- यह सिस्टोसोमा नेजेलिस नाम परजीवी से होता है। इसमें पशु के नाक से पीला स्त्राव, सॅास लेने में कठिनाई एवं नाक में गोभी के फूल के आकार के छोटे-छोटे फोड़े हो जाते हैं।

उपचारः- एिन्थियोमेलिन इंजेक्शन देते हैं।

मिल्क फीवर:- यह रोग अधिक दूध देने वाले पशुओं को होता है, यह प्रसव से 12 से 72 घंटों के अंदर दिखाई देता है। पशु खाना पीना बंद कर देता है। एवं सुस्त  हो जाता है। शरीर का ताप सामान्य से कम हो जाता है अपना सिर मोड़कर छाती पर रख लेता है।

उपचार:- केल्सियम बोरोक्लूकोनेट इंजेक्शन नस में दिया जाता है।

क्रीटोसिसः- यह बच्चा देने के बाद 6 से 8 सप्ताह के अंदर एकाएक दूध देना बंद हो जाता है या कम हो जाता है। यह गर्भावस्था में प्रोटीन युक्त दाना अधिक या कार्बोहाइड्रेट युक्त दाना नहीं खिलाने से होता है। इसमें पशु का शारीरिक तापमान सामान्य, सिर झुका हुआ, ऑंखे बंद और बैठने पर पशु उठ नहीं पाता है। पशुओं में मिल्क फीवर जैसे लक्षण भी दिखते हैं। रक्त एवं मूत्र में एसीटोन का मिश्रण बढ़ जाता है।

उपचार:- रिन्टोज इंजेक्शन नस में देते हैं।

मेस्टाइटिस (थनैला रोग):- यह रोग संकर नस्ल के पशुओं विशेषकर अधिक दूध देने वाली नस्लों में होता है। य स्ट्रेटटोकोकस, स्टेफाइलोकोकस जीवाणु से होता है। पशु के थनों में प्रभावित क्वाटर में सूजन आ जाती है। छूने पर गर्म एवं दूध में खून या मवाद आने लगता है। शरीर का तापमान बढ़ जाता है।

उपचारः- प्रभावित क्वाटर का दूध निकालने के पश्चात उसमें टाइलाक्स या पेन्डस्ट्रीज एस.एच.ट्यूब सुबह-शाम डालना चाहिए।

आपुरा (टिम्पैनी):- यह ज्यादा मात्रा में बासीम या हरी घास खिलाने से होता है। इसमें पेट फूल जाता है। एवं सॅास लेने में कठिनाई होती है।

उपचार:- ब्लोटोसील या तारपीन का तेल 30 एम.एल. तथा मीठा तेल 100-150 एम.एल. दोनों मिलाकर पिलाना चाहिए।

डायरिया:- यह संक्रमण होने पर, दूषित आहार खाने से या पानी की कमी होने से होता है। इसमें पशु को पतला गोबर, अॅाखें अंदर धंसी हुई होती है पशु कमजोर एवं सुस्त हो जाता है।

उपचार:- इंजेक्शन सल्फाडिमीडीन या बायोट्रिप देते हैं।

निमोनिया:- यह फेफड़े के संक्रमण होने की स्थिति में होता है। पशु सुस्त, नाक से स्त्राव होना, सॅास लेने में कठिनाई, शारीरिक तापमान बढ़ जाना एवं सॅास लेने में घर्र-घर्र की आवाज आती है।

उपचार:- इंजेक्शन आक्सीटेट्रासाइक्लिन या डाईक्स्टीसिन एस देना चाहिए।

पोषक तत्वों की कमी:-

1.केल्सियम एवं फास्फोरस की कमी:- ये दोनो पोषक तत्व नवजात बछड़े-बछड़ियों के हड्डी एवं दॅात बनने में काम आते हैं इसकी कमी से नवजात बछड़ों में रिकेट्स एवं बड़ों में आस्टियोमेलेसिया होता है।

मैग्नीषियम की कमी:- यह केल्सियम और फास्फोरस के मेटाबालिज्म में सहायोग करता है। इसकी कमी में टिटैनी, पलने में सुतुलन बिगड़ जाता है।

कोबाल्ट की कमी:- यह रूमेन माइक्रोफ्लोरा को विटामिन ठ 12  बनाने के लिए प्रेरित करता है। इसकी कमी से पशु कमजोर, बाल, रूखे एवं एनीमिक होता है।

आयरन एवं कॅापर:- इसकी कमी से पशु कमजोर, दस्त एनीमिक हो जाता है।

बीमारी एवं उसके नियंत्रण के उपायः-

संक्रमण को स्वस्थ पशुओं तक पहुंचने से रोकना।

पशुओं में रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास करना।

ऐसे पशु जिन्हें बचाव का तरीका उपयोग नहीं किया गया है उनमें संक्रमण को न्यूनतम कर या रोकना। दूषित सामग्री को सही तरीके से नष्ट करना जिसमें जलाना,जमीन में गाड़ना फेंकना इत्यादि आवश्यक है लेकिन वैज्ञानिक तरीके से करना चाहिए।

(2) (अ) अर्जित रोग प्रतिरोधक क्षमता।

 (ब) जीवाणु विषाणुओं की ऐसी प्रजाति का प्रजनन रोकना और यदि संभव न हो तो विशेष प्रजाति ; विकसित करना जो रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाये।

 (स) उच्च स्तर का प्रबंधन करने से भी समस्या का हल हो सकता है-

कृत्रिम रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए जीवाणु तथा विषाणुनाशक दवाओं का उत्पादन करना।

उचित एन्टोजन को विकसित करना जो उनसे बचाव करें जैसे कि मल्टीपल एन्टीजन जिनमें जीवित तथा मृत दोनों शामिल हैं।

किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया न हो या कम टीकाकरण किया गया हो।

रोकथाम के लिए रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास करना।

अत्यधिक गंभीर बीमारियों के एन्टीजन का उपयोग करना।

(द) पेसिव्ह रोग प्रतिरोधक क्षमता के अल्प समय के लिए होता है जिसमें पूर्व से बनी हुई एन्टीबॅाडी को टीका के रूप में लगाना इसमें हाइपर इम्यून सीरम Convalscent (Recovered animal) वयस्क सीरम,प्लेसेटल एक्सट्रेस आदि।

(ई) उच्च स्तर का पशु प्रबंधन जिसमें पशु गृह शामिल है। इसमें बीमार तथा स्वस्थ पशु को अलग रखना विभिन्न आयु समूह के पशुओं को एक साथ न रखना इसमें पक्षी भी शामिल है। विभिन्न प्रजाति के पशुपक्षियों को भी एक साथ नहीं रखना चाहिए।

इसके अलावा सही नर्सिंग तथा उपचार द्वारा भी पशुपक्षियों को विभिन्न बीमारियों से बचाया जा सकता है।

पशुपक्षियों की बीमारी बचाव एवं रोकथाम के उपायः-

बीमार तथा स्वस्थ पशुओां को सीधे सम्पर्क से बचाना।

अप्रत्यक्ष संपर्क जैसे की दूषित दाना, पानी चारा इत्यादि से बचाना तथा दूषित पदार्थों को नष्ट करना।

विभिन्न आयु समूह के पशु पक्षियों को अलग-अलग रखना।

उच्चस्तरीय प्रबंधक का पालन करना जो बीमारी की सुप्तावधि तथा प्रजनन से संबंधित हो।

पानी,दाना चारा के बर्तन इत्यादि साफ सुथरे रखना।

पशुओं को भीड़ में न रखें तथा उचित स्थान दें।

रोशनी तथा हवा की पर्याप्त व्यवस्था हो।

प्रत्येक पशु गृह के प्रत्येक कमरे के लिए अलग-अलग व्यक्ति हो।

समय-समय पर उनका बिस्तर बदलते रहें। तथा सोडा बाई कार्ब  लाइसॅाल या  सोडियम हाड्राक्साईड अथवा चूने से सफाई करना।

नये पशु यदि क्रय करें तो टीकाकरण पूर्व से हो तथा बीमारी रहित हो तथा पशुगृह के निर्जतुकरण के बाद ही उन्हें उसमें रखें।

पशुओं को पूरा इतिहास जिसमें नस्ल, पूर्व बीमारी, उत्पादन आयु इत्यादि सभी की जानकारी रखें।

समय-समय पर रोग प्रतिरोधक टीकाकरण करें।

आगन्तुकों का प्रवेश वर्जित करें और यदि प्रवेश करें तो कीटनाशक दवा के घोल में पेट डुबाकर जायें तथा उसी प्रकार वापस आयें।

बाह्य परजीवियों से बचाने के लिए, चूहे, पक्षियों आदि का प्रवेश से रोंके।

घुटदमु बीमारियों से मृत पशु को दूर 6 फुट गहरे गड्ढ़े में दफनायें तथा बिना बुझा चूना नमक डालकर गड्ढ़ा ढ़क दें। चारो ओर काटेदार बाड़ी बनाकर चेतावनी लिखें कि यहाँ पर स्वस्थ पशुओं को चराने न लायें।

कृमिनाशक दवा का पान प्रथम तीन बार प्रत्येक 21 दिन में करें तथा बाद में प्रत्येक 2 माह में करें तथा कृमिनाशक दवा बदल-बदल कर दें या पिलायें।