Pashu Sandesh, 08 Jan 2024
सरिता यादव, अशोक बूरा और सुनेश बलहारा
*भाकृअनुप – केन्द्रीय भैंस अनुसन्धान संस्थान, हिसार
थनैला रोग दुनिया के डेयरी उद्योग को प्रभावित करने वाला दुधारू पशुओं का अत्यधिक महत्वपूर्ण और प्रचलित रोग है। इससे दूध की पैदावार कम होती है यदि थनैला रोग का उपचार न करवाया जाये, तो परिणामस्वरूप प्रभावित गायों/ भैंसों में दूध पैदावार कम हो जाती है और लेवटी की दूध ग्रंथि ख़त्म हो जाती है।
पारम्परिक रूप से, गायों की तुलना में, भैंसो में थनैला रोग कम पाया जाता है क्योंकि भैंस में थन और लेवटी रक्षा तंत्र की रचना एवं क्रिया गाय से भिन्न होती है:
सबसे महत्वपूर्ण अंतर थन की शारीरिक बनावट में निहित है। यह थन रक्षा तंत्र बैक्टीरिया संक्रमण को थन नली में प्रवेश करने से रोकता है। ये अंतर निम्न्लीखित इस प्रकार है:
इन सब के अलावा, शुष्क काल अवधि, पिछले ब्यांत से आए थनैला संक्रमण, को स्वयं ही ठीक करने में मदद करती है। चूंकि भैंस में शुष्क अवधि गायों की तुलना में लंबी (120-150 दिन) होती है, इसलिए गाय की तुलना में (45-60 दिन शुष्क अवधि), इंट्रामैमरी संक्रमण (थनैला रोग) से भैंस के स्वयं ही ठीक होने की अधिक गुंजाईश है ।
थनैला रोग को मुख्य रूप से दो प्रकार में विभाजित कर सकते है:
लक्षणरहित थनैला रोग:
लक्षणरहित थनैला रोग का अर्थ है कि थन एवं लेवटी में संक्रमण है, परंतु बाहरी परिवर्तन जैसे थन की सूजन, दर्द एवं दूध में थक्के, खून नहीं देखने को मिलता है। इसमें दूध के उपयोगी घटकों में कमी आती है (लैक्टोज, कैजिन, वसा, कैल्शियम आदि) एवं अवांछनीय तत्वों का स्तर बढ़ जाता हैं जिसके परिणामस्वरूप दूध की गुणवता और मूल्य कम हो जाता है। सबक्लिनिकल मैस्टाइटिस केस क्लिनिकल मैस्टाइटिस की तुलना बहुत अधिक होते है।
लाक्षणिक थनेला रोग: वह थनों का संक्रमण जो कि देखा जा सकता है जैसे-दूध में थक्के, खून मिश्रित दूध, थनों में कठोरता, सुजन आदि| लाक्षणिक मैस्टाइटिस के दो प्रकार हो सकते है: तीव्र मैस्टाइटिस जिसमे अचानक से रोग की शुरुआत होती है और गंभीर लक्षण जैसे तेज बुखार, थनों में सूजन आदि दिखता हैं। दूसरे प्रकार का नाम क्रोनिक/दीर्घकालीन मैस्टाइटिस है जिसमे यह थनेला रोग लंबे समय तक बना रहता है और गंभीर लक्षण नहीं दिखते है।
वैज्ञात्रिक साहित्य के अनुसार 200 से अधिक विभिन्न जीवाणु मैस्टाइटिस कर सकते हैं । परन्तु अधिकांश थनैला (मैस्टाइटिस) के मामले केवल कुछ ही सामान्य जीवाणुओं के कारण होते हैं ।
मैस्टाइटिस के जीवाणुओं को निम्नलिखित दो श्रेणियों में विभाजित करा जा सकता है:
संक्रामक जीवाणु: ये जीवाणु अयन/थन की त्वचा पर रहते हैं और दूध निकालने की प्रक्रिया के दौरान संक्रमित भैंस से स्वस्थ भेंस में फैलते हैं। थनों के छोर (teat end) से ये जीवाणु, कई गुना विभाजित होकर, थन के साइनस में प्रवेश करते हैं। संक्रामक मैस्टाइटिस को रोकने के लिए शुष्ककाल चिकित्सा एवं दूध दोहन पश्चात् कीटाणुनाशक घोल में थन को डुबोना अत्यंत नियंत्रण महतवपूर्ण बचाव के उपाय हैं।
वातावरण सम्बंधित जीवाणु: ये जीवाणु पशु के आसपास के वातावरण में रहते हैं जैसे गोबर, बिछोना आदि। ये बैक्टीरिया थनों के छोर पर चिपकते और गुणा नहीं होते हैं बल्कि विपरीत दूध के प्रवाह के साथ थन की नली में प्रवेश करते हैं| पर्यावरण जनित थनेला रोग को रोकने के लिए दूध दुहने से पहले थन को कीटाणुनाशक में डुबोना चाहिए। यह रोग एक ब्यांत से दूसरे ब्यांत तक नहीं रहता है इसी कारण से शुष्ककाल चिकित्सा पर्यावरण जनित थनेला रोग को समाप्त करने में इतनी असरदार नहीं है।
कीटाणुनाशक घोल द्वारा थनेला रोग से बचाव:
थनेला रोग के नियंत्रण के लिये थन को कीटाणुनाशक घोल में डुबोना एक आर्थिक और प्रभावी तरीका है। टीट डीप दो प्रकार के होते है: प्रीमिलिकिंग टीट डीप और पोस्टमिल्किंग टीट डीप ।दूध निकालने से पहले थन को कीटाणुनाशक में डुबोने से वातावरण सम्बंधित थनेला रोग को नियंत्रित किया जा सकता है वहीं संक्रामण थनैला रोग से बचाव के लिए दूध दुहने के बाद कीटाणुनाशक का इस्तेमाल किया जाता है। इसके उपयोग से थनकी त्वचा पर जीवाणुओं की संख्या कम की जा सकती है ताकि जीवाणु थन की नली में प्रवेश ना कर सके। यह दूध में बैक्टीरिया की गिनती भी कम करता है। उदाहरण: बीटाडीन (पोविडोन आयोडीन ५ %) में १० % ग्लिसरीन डाल कर पोस्टमिल्किंग टीट डीप बनाया जा सकता है । ध्यान रहे कि बीटाडीन में पानी ना मिलाए।
थनेला रोग का उपचार: थनेला रोग का उपचार दो प्रकार से किया जा सकता है: जब भैंस दूध देने के चरण में हो (लैक्टेशन चिकित्सा) और शुष्क काल चिकित्सा (शुष्क काल चिकित्सा जिस दिन भैंस को सुखा किया जाता है उसी दिन देनी होती है)। थनेला रोग कि चिकित्सा के प्रमुख दो मार्ग है-थन की नली में दवाई को रखना और इंजेक्शन द्वारा दवाई देना। थनैला रोग ग्रसित भैंस को पहचान कर झुंड से अलग करना और फिर आखिर में दूध निकालना चाहिए। जब भैंस दूध में हो उस दोरान दौरान थनेला उपचार बहुत निराशाजनक है। हालांकि थक्के और अन्य लाक्षणिक संकेत चिकित्सासे गायब हो सकते हैं, परन्तु जीवाणु रहित लेवटी होने की दर कम है| इस लिए शुष्क काल चिकित्सा बहुत महत्वपूर्ण है। शुष्क काल चिकित्सा से पिछले ब्यांत का थनैला संक्रमण खत्म किया जाता है और साथ में नए संक्रमण की घटना रोकी जाती है।