दुधारू पशुओं में थनैला रोग

Pashu Sandesh, 29 August 2022

कविशा गंगवार, बृजेश कुमार यादव

थनैला रोग दुधारू पशुओं में होने वाला एक गंभीर रोग है जोकि दुग्ध उत्पादन को अत्यंत क्षति पहुंचाता है तथा पशुपालक के लाभ तथा उन्नति का प्रमुख बाधक है। यह रोग पशुओं में अनेक प्रकार के जीवाणु, विषाणु एवं फफूंद के संक्रमण के कारण होता है जैसे स्टेफाएलोकॉकस, स्ट्रेप्टोकॉकस, कैंडिडा आदि।  

रोग फैलने के प्रमुख कारण

  • पशुओं के रहने वाले स्थान पर गंदगी, गीलापन, गोबर तथा कीचड़ का जमा होना 
  • थनों में किसी कारण से चोट लगना
  • थन ग्रंथियों से पूरी तरह दूध न निकलना 
  • गलत तकनीक से दूध दुहना 
  • दूध पीते समय बछड़े या बछिया का थनों में दांत लग जाना 
  • ग्वालों का दूध दुहने से पूर्व अपने हाथों, दूध के बर्तनों, दूध दुहने की मशीन तथा पशु के थनों की अच्छे से सफाई न करना 
  • दूध दुहने के तुरंत बाद पशु का गंदे स्थान पर बैठ जाना

प्रमुख लक्षण

थनैला रोग दो प्रकार का होता है - अलाक्षणिक तथा लाक्षणिक

  • अलाक्षणिक प्रकार में थन तथा दूध बिलकुल सामान्य प्रतीत होते हैं किन्तु प्रयोगशाला में दूध की जांच करने पर उसकी गुणवत्ता में गिरावट मिलती है तथा रोग का कारण भी ज्ञात होता है जिससे रोग का उपचार किया जा सकता है। 
  • लाक्षणिक प्रकार में पशु में निम्न बदलाव देखने को मिलते हैं –
  • थनों में सूजन आना 
  • थनों को छूने पर दर्द होना 
  • थनों में कड़ापन आ जाना तथा लालिमा रहना 
  • दूध दुहने पर पस अथवा रक्त का आना 
  • दूध का नमकीन होना, रंग में बदलाव आना तथा दूध में थक्का पड़ना 
  • दूध में फैट की मात्रा कम हो जाना 
  • गंभीर रूप से रोग के विकसित हो जाने पर थनों में अवसाद होना तथा थनों का सड़ कर गिर जाना 
  • यदि समय पर उपचार न किया जाये तो थनों में कड़ापन तथा सूजन इतनी अधिक विकसित हो जाती है कि थनों का सामान्य अवस्था में परिवर्तित होना असंभव हो जाता है तथा थनों से दूध आना स्थाई रूप से बंद हो जाता है।

रोग परीक्षण

  • थनैला रोग में दूध के पी एचमें बदलाव आता है जोकि सामान्यता अम्लीय (6.2-6.8) होता है परन्तु रोग ग्रस्त होने पर यह परिवर्तित होकर क्षारीय (7.2-7.4) हो जाता है अतः संदेह की स्थिति में पी एच पेपर से दूध की जांच करके थनैला का पता किया जा सकता है 
  • यदि दूध में किसी भी प्रकार का बदलाव दिखे तो कैलिफ़ोर्निया मैस्टाइटिस टेस्ट के माध्यम से थनैला का पता किया जा सकता है 
  • समय -समय पर दूध का कल्चर करके थनैला रोग करने वाले जीवाणु का पता किया जा सकता है तथा उसी के अनुसार उपचार देकर रोग ग्रस्त पशुओं को जल्दी ठीक किया जा सकता है 
  • थनैला ग्रसित दूध में क्लोराइड आयन की मात्रा अधिक बढ़ जाती है इसलिए दूध की प्रयोगशाला में जांच करके थनैला रोग का पता लगाया जा सकता है

रोग की रोकथाम

  • थनैला एक संक्रामक रोग है तथा एक पशु से दूसरे पशु में तेजी से संचारित होता है अतः संक्रमित पशुओं को स्वस्थ पशुओं से अलग बांधना चाहिए 
  • एक पशु से दूध निकालने के बाद ग्वालों को अच्छी तरह से हाथों को साफ करना चाहिए तथा उसके बाद ही दूसरे पशु से दूध निकलना चाहिए 
  • स्वस्थ तथा संक्रमित पशुओं से दूध लेने के लिए अलग अलग ग्वाले नियुक्त करने चाहिए तथा पहले स्वस्थ पशुओं से दूध लेने के बाद ही संक्रमित पशुओं से दूध निकालना चाहिए 
  • पशु के रहने के स्थान को स्वच्छ रखना चाहिए तथा फर्श को सूखा रखना चाहिए 
  • थनों की सफाई नियमित रूप से करनी चाहिए तथा पशुशाला में स्तेमाल होने वाले सभी उपकरणों तथा कपड़ों को अच्छी तरह साफ करना चाहिए 
  • समय-समय पर थनों तथा दूध की जांच करनी चाहिए और यदि दूध में किसी भी प्रकार का बदलाव दिखे तो तुरंत पशु चिकित्सक से परामर्श लेना चाहिए 
  • दूध दुहने के कुछ समय बाद तक थन नलिका खुली रहती है और जब पशु गंदे स्थान पर बैठता है तो इन थन नलिका के रास्ते थनैला रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणु थनों में प्रवेश कर जाते हैं अतः दूध दुहने के तुरंत बाद पशु को फर्श पर नहीं बैठने देना चाहिए जिसके लिए पशु को दूध दुहने के बाद पशुआहार देना चाहिए ताकि पशु खड़ा रहकर पशुआहार खाये 
  • पशु को उच्च गुणवत्ता वाला आहार देना चाहिए 

रोग से हानियां

  • थनैला ग्रसित पशुओं में दूध उत्पादन में गिरावट आती है जिसके कारण पशुपालक को आर्थिक रूप से अत्यधिक हानि पहुँचती है 
  • गंभीर स्थिति में पशु की थन नलिका पूर्णतः बंद हो जाती है जिसके कारण थनों से दूध आना हमेशा के लिए बंद हो जाता है 
  • थनैला ग्रसित पशुओं के इलाज में अधिक धनराशि लगती है जिसके कारण व्यवसाय में उत्तम लाभ नहीं मिल पाता है। 

रोग का उपचार

  • प्रारम्भिक अवस्था में रोग का उपचार करने से रोग पर नियंत्रण करके उसे ठीक किया जा सकता है अन्यथा रोग के गंभीर अवस्था में पहुँचने पर उसपर नियंत्रण करना कठिन हो जाता है तथा थनों को ठीक कर पाना असंभव हो जाता है 
  • पशु को विटामिन ई तथा सेलेनियम युक्त पोषक तत्व खिलाने से थनैला के प्रकोप को कम किया जा सकता है 
  • थनैला रोग करने वाले जीवाणु का पता लगने पर उसके अनुसार जीवाणुनाशक औषधियां जैसे ब्रॉड स्पेक्ट्रम एंटीबायोटिक्स देनी चाहिए 
  • प्रारम्भिक अवस्था में जब एक थन प्रभावित होता है तब औषधि ट्यूब के द्वारा उसी प्रभावित थन मेंऔषधि को डाला जाता है 
  • दूध दुहने से पहले तथा बाद में एंटीसेप्टिक घोल जैसे 1:1000 पोटैशियम परमैंगनेट से थनों की अच्छी तरह से सफाई करनी चाहिए 
  • औषधि देने के बाद पशु के दूध को लगभग 48 घंटे तक मनुष्य के सेवन के लिए उपयोग में नहीं लेना चाहिए क्यूंकि इस दूध में औषधिओं की मात्रा अधिक होती है जोकि मनुष्य के लिए हानिकारक होती है

वर्तमान परिवेश में थनैला रोग दुधारू पशुओं में एक अत्यंत गंभीर समस्या का विषय है जोकि पशुपालक को आर्थिक तथा व्यावसायिक रूप से अत्यधिक हानि पहुंचाता है तथा पशुपालक की उन्नति के मार्ग में सबसे बड़ा बाधक है अतः सही समय पर इस रोग का पता लगना तथा इसका इलाज प्रारम्भ करना अति आवश्यक है ताकि पशु एवं पशुपालक एक स्वस्थ तथा समृद्ध जीवन की ओर अग्रसर रहें।  

 

कविशा गंगवार, एम वी एस सी, पशु विकृति विज्ञान विभाग, दुवासु, मथुरा, उ० प्र० 

बृजेश कुमार यादव, एम वी एस सी, मादा पशु रोग एवं प्रसूति विज्ञान विभाग, दुवासु, मथुरा, उ० प्र० 

kavishagangwar8@gmail.com, brijeshyadav1090@gmail.com

 7037504543, 8267951648