पशु संदेश,19 August 2019
डॉ राखी गांगिल डॉ दीपक गांगिल डॉ. विवेक अग्रवाल
मनुष्यों का पशुओं के साथ अनंत काल से घनिष्ठ सम्बंध रहा है। अगर यह कहें कि पशुओं के बिना मनुष्यों का जीवन सम्भव नहीं है तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी । आज पशुओं का उपयोग विभिन्न क्षेत्रों में जैसे भोजन, कपड़े, परिवहन आदि के रूप में होता है। इसीलिए मनुष्य एवं पशु एक दूसरे के सम्पर्क में रहते हैं । मनुष्य विभिन्न व्यवसायों में काम करने के कारण पशु एवं उसके सीधे शरीर के सम्पर्क आने से भी काफ़ी बीमारियों का शिकार हो जाता है । जानवरों के साथ लगातार सम्पर्क में रहने के कारण रोगों के क़ीटाणु मनुष्य में फैल सकते हैं । कुछ जूनोटिक बीमारियाँ पशुओं एवं मनुष्य दोनो में ही जानलेवा होती हैं । जैसे टीबी, प्लेग, रेबीज़, ऐन्थ्रैक्स आदि । कुछ बीमारियाँ पशुओं में महामारी के रूप में फैलती हैं पर मनुष्य में कभी कभी ही देखने को मिलती हैं ।जैसे मुँहपका खरपका रोग, पासचुरेल्लोसिस आदि । और कुछ बीमारियाँ मनुष्यों में गम्भीर समस्या पैदा करती हैं जैसे ब्रूसलोसिस,क्यू फ़ीवर आदि ।
कई व्यवसायी जैसे पशुपालक, किसान, पशु चिकित्सक, मछुआरे, शिकारी, चावल के खेतों में काम करने वाले (Rice field worker), प्रयोगशाला के कर्मचारी आदि ऐसे व्यक्ति हैं जो विभिन्न प्रकार के जूनोटिक बीमारियों जैसे दाद, तपेदिक, येलो फ़ीवर, ब्रूसलोसिस, लेपटोस्पिरोसिस, लिस्टीरीयोसिस, इरिसिपेलिस, ऐन्थ्रैक्स आदि ।अधिकतम जूनोटिक बीमारियों का संक्रमण पशुओं के प्रत्यक्ष (direct) और अप्रत्यक्ष (indirect) रूप से सम्पर्क में आने से होता हैं और ट्रॉपिकल ऊष्ण कटिबंधीय प्रदेशों में वाहक (vector) भी बहुत से रोगों को फैलाने में मदद करते हैं इसलिए ये ज़रूरी हो जाता है के पशुओं की बीमारी का उपचार तुरंत हो, नहीं तो ये बीमारियाँ मनुष्य में फैलती रहेंगी ।
पशु उत्पाद एवं खाद्य पदार्थों से भी ज़ूनोटिक बीमारियां फैलती हैं । ज़ूनोटिक रोगों का प्रकोप उन लोगों में अधिक देखा गया है जो गंदी व घनी बस्तियों में रहते हैं और जहाँ मक्खी मछर बहुत ज़्यादा होते हैं । महानगरों में कारख़ानों, फेक्टरियों, बस्तियों से निकले गंदे पानी व दूसरे पदार्थों के निस्काषन का उचित प्रबंधन नहीं होने के कारण मच्छर मक्खी आदि रोग फैलाने में सहायक होते हैं ।
जूनोटिक बीमारियाँ मुख्यतः विषाणु, जीवाणु और परजीवी संक्रमण से होती हैं । मनुष्य में होने वाली कुछ मुख्य जूनोटिक बीमारियाँ निम्न हैं ।
रेबीज़:
कारक - यह विषाणु जनित रोग है जिसे हाइड्रफ़ोबिया भी कहते हैं । यह रोग लायसा वाइरस से होता है जोकि बुलेट के आकर का होता है । यह रोग मुख्यतः कुत्ता, गाय, भैंस, भेड़, बकरी आदि में होता है । रेबीज़ रोग से पीड़ित कुत्ते बिल्ली गीदड़ लोमड़ी नेवला आदि पशु मुख्य रूप से रिज़रवोईर का काम करते हैं । यह रोग रेबीज़ पीड़ित जानवर की लार में यह वाइरस होता है जब वह स्वस्थ मनुष्य को काटता या चाटता है तो रोग के विषाणु उसके शरीर के काटे हुए घाव के द्वारा प्रवेश कर जाते हैं ।
लक्षण - इस बीमारी में कुत्ता बहुत उत्तेजित हो जाता है और गले की माँसपेशियों में लकवा हो जाता है तो वह कुछ खा पी नहीं पता और इधर उधर दौडता फिरता है। मनुष्य में उत्तेजनात्मक प्रव्रती, बैचैनी, बुखार, गले के स्नायुओं का दर्द खिंचाव, भोजन एवं पानी निगलने में काफ़ी दर्द महसूस होना मुख्य लक्षण हैं ।
बचाव - रेबीज़ से बीमार कुत्ता अगर काट ले तो ज़ख़्म वाले स्थान को गर्म पानी और साबुन से धोना चाहिए और तुरंत चिकित्सक से परामर्श लेना चाहिए । पालतू कुत्तों को एंटीरबीज टीके लगाने चाहिए ।
इनफ़्लुएंज़ा:
इनफ़्लुएंज़ा या ज़ुकाम मुख्य रूप से स्वाँश सम्बंधी अँगो को प्रभावित करता है ।
कारक -यह रोग ओरथो मिक्सो वाइरस के इनफ़्लुएंज़ा वाइरस ग्रूप ए से होता है। यह विषाणु मुख्य रूप से श्वांस संबंधी अंगों को प्रभावित करता है । यह मुख्यतः घोड़े, सुअर, बतख़, चूज़े, टरकी व मनुष्य में होता है ।यह मनुष्य और सुअर में आश्रय (carrier) के रूप में भी रहता है।यह रोग स्वस्थ मनुष्य के रोगी व्यक्ति या जानवर के सीधे सम्पर्क में आने से होता है।
लक्षण - पशुओं में भूख ना लगना, खाँसी, बुखार इसके मुख्य लक्षण हैं । पक्षियों में श्वसन सम्बंधी रोग, सायनुसायटिस, चेहरे एवं सिर में सूजन व अंडों के उत्पादन में कमी हो जाती है । मनुष्य में इस रोग में बुखार, खाँसी, छींक व सिर दर्द होता है ।
बचाव - इस रोग का कोई निदान नहीं है क्यों की यह रोग विषाणु से होता है । रोगी पशु एवं उसके निष्काशित द्रव्यों को मनुष्य के रहने के स्थान से दूर ले जाकर नष्ट करना चाहिए । मनुष्य में इस रोग से बचाव के टीके लगाना चाहिए ।
ट्यूबरकुलोसिस (Tuberculosis)
कारक - यह जीवाणु से होने वाली ऐसी जूनोटिक बीमारी है । यह रोग मायकोबेक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस, मायकोबेक्टीरियम बोविस और मायकोबेक्टीरियम ऐवियम जाति के जीवाणुओं से होता है । मनुष्य के अतिरिक्त यह बीमारी गाय, कूक्कुट, घोड़ा, बकरी आदि जानवरों में भी होता है । मुख्य रूप से मनुष्य ही इस रोग का आश्रय है। यह बीमारी मनुष्य के थूक से निकले ड्रोप्लेट द्वारा साँस के माध्यम से फैलती है। बीमार पशु के कच्चे दूध के सेवन से भी फैलती है। और संक्रमित वस्तुओं के प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से सम्पर्क में आने से भी फैलती है। इस रोग में गले में गिलटियाँ हो जाती हैं एवं श्वांस एवं पाचन तंत्र प्रभावित होता है।
लक्षण - मनुष्यों में खाँसी, बुखार, वज़न कम होना, थकावट, आवाज़ भारी होना आदि लक्षण दिखाई देते हैं। इस रोग से बहुत कमज़ोरी आ जाती है और समय पर पूरा इलाज नहीं मिलने पे मृत्यु भी हो सकती है। भारत में लगभग ५ लाख लोग प्रतिवर्ष इस बीमारी से मरते हैं । हवा के द्वारा इस बीमारी का संचरण किसानो एवं पशुओं की देखरेख करने वाले कर्मचारियों में भी देखा गया है।
बचाव - इस बीमारी के उपचार के लिए आयसोनियाज़िड, रिफामपिसिन आदि औसषधियां रोगी की दशा अनुसार विभिन्न मात्राओं में एक निश्चित समय के लिए दी जा सकती है। दूधारू पशों में टी॰ बी॰ को समाप्त करने के लिए ट्यूबरकुलिन टेस्ट किए जाना चाहिए। दूध एवं उससे बने भोज्य पदार्थों को अच्छी तरह से पासचूरिकृत करके ही सेवन करना चाहिए । बी॰ सी॰ जी॰ का टीका हर बच्चे को जन्म के साथ ही लगा देना चाहिए। रोग की जाँच करा के उसका ठीक तरह से इलाज लेना चाहिए । रहने के स्थान को साफ़ सुथरा, प्रदूषण रहित हवादार एवं प्रकाश युक्त रखना चाहिए।
ब्रूसलोसिस
कारक - यह जीवाणु से होने वाला जूनोटिक रोग है । इसे माल्टा फ़ीवर, अंडुलेंट फ़ीवर आदि भी कहते हैं। यह रोग मुख्यतः ब्रूसेल्ला अबोर्टस, ब्रूसेल्ला मेलिटेंसिस, ब्रूसेल्ला सुइस आदि जीवाणुओं से होता है। गाय, भेड़, बकरी, सुअर, मनुष्य आदि इसके मुख्य होस्ट हैं । यह रोग मनुष्य में रोगी पशु या उसके उत्सर्जित द्रव्यों के सीधे सम्पर्क में आने से फैलता है। बीमार पशु से मिलने वाले दूध एवं उससे बने उत्पादों को अधपका या कच्चा खाने से भी होता है। रोगी पशु या उससे उत्सर्जित द्रव्य या उसकी जेर के कटी हुई त्वचा के सीधे सम्पर्क में आने से भी यह रोग फैलता है।
लक्षण - इस बीमारी से मादा पशु ज़्यादा प्रवाभित होते हैं जैसे गर्भपात होना, जेर का रुक जाना आदि नर पशुओं में जननांगो में सुजान आजाती है वह प्रजनन के लिए बेकार हो जाते हैं दूसरे पशुओं में यह रोग गर्भाशय के स्त्राव से फैलता है। मादा पशु कुछ समय के लिए बाँझ भी हो जाती है। मनुष्य में मुख्यतः बुखार, सिर दर्द जोड़ों में दर्द, कमर में दर्द, रात में पसीना आना, शरीर का वज़न कम होना जैसे लक्षण दिखाई देते हैं। स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों में यह रोग ज़्यादा पाया जाता है। यह रोग मुख्यतः किसान पशुपालकों, गडरियों, पशु चिकित्सकों, बूचड़खाने के कर्मचारियों आदि में देखा गया है ।
बचाव - इस रोग के उपचार के लिए २ ग्राम टेट्रसाइक्लीन क़रीब २१ दिन तक लगातार देना चाहिए और साथ में बी काम्प्लेक्स का एक कैप्सूल रोज़ देना चाहिए। चूँकि यह बीमारी पशुओं से जानवरो में फैलती है इसलिए इस बीमारी का रोकथाम पशुओं में ही सर्वप्रथम होना चाहिए।
डॉ राखी गांगिल डॉ दीपक गांगिल डॉ. विवेक अग्रवाल
पशु चिकित्सा विज्ञान एवं पशु पालन महाविद्यालय महू