परम्परागत प्राचीन ज्ञान से उन्नत पशुपालन

पशु संदेश, 24th November 2018

डॉ  सोनम भारद्वाजडॉ बृजेश नंदा

परम्परागत ज्ञान के संदर्भ में बहुत सी व्याख्याएं दी गई है |यह ज्ञान का वह भण्डार है जो अनुभव अभ्यास एवं सांस्कृतिक आधार पर मनुष्यों के आपसी एवं उनके वातावरण के संबंधों की जटिलता को समझकर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को अंतरित किया जाता है।एक प्रचलित कहावत है- एक ज्ञानी वृद्ध पुरुष की मृत्यु समस्त पुस्तकालय का अदृश्य होना है।

महत्वता-

  • सामाजिक संपोषणता के लिए उपयोगी है।
  • उत्पति मूलक संसाधनों के अनुरक्षण के लिए आवश्यक है।
  • परम्परागत ज्ञान धारक एवं संप्रदाय के उत्थान के लिए जरूरी है।
  • देश की अर्थ व्यवस्था के लिए भी हितकारी है।
  • वातावरण संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

स्वरुप-

  • सामूहिक संपति का वह स्वरूप है जो गतिशील है, जो एक संस्कृति से दूसरी को विनियम होती है।
  • समाज एवं प्रकृति के प्रति सम्मान एवं उत्तरदायित्व का सूचक है।
  • कोई दुष्प्रभाव नहीं है।
  • स्थानीय उपलब्धता है इसलिए किफायती है।
  • उन क्षेत्रों में जहां पशुचिकित्सा संबंधी सेवाएं सीमित है और जहां दवाइयों की उपलब्धता नहीं है ऐसे श्रेत्रो में बहुत ही प्रभावी है।

परम्परागत ज्ञान के साधन-

  • कृषक
  • वृद्धव्यक्ति
  • लोकसाहित्यकथाएं - कहानिया गीत इत्यादि
  • प्राचीन दस्तावेज
  • सामाजिक संस्थाएं
  • विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित सामग्री

पशुपालन में परम्परागत ज्ञान के कुछ उदाहरण-

  • गुड़व‌ मेथी
  • बाजरावमेथी
  • सफेदे के पत्तों की भाप देना
  • नोसादर
  • हल्दी- चोट लगने पर
  • कालीजीरी व नींबू का रस व खांड- थनैला रोग में
  • हींग अजवाइन- अफरा अपच में
  • शतावरी
  • छिलके सहित केला

उपरोक्त नुस्खे काफी समय से ग्रामीण क्षेत्र में प्रयोग किए जाते है।ये तो केवल उदाहरण मात्र है परम्परागत ज्ञान का ऐसा असीमित भण्डार हमारे देश के विभिन्न ग्रामीण क्षेत्रों में विलुप्तिता की ओर है।जिसे समय रहते संरक्षित करने की पुरजोर आवश्यकता है ताकि वैज्ञानिक शैली के साथ परम्परागत ज्ञान का समन्वय स्थापित हो सके।

  डॉ  सोनमभारद्वाज1डॉबृजेशनंदा2

 1. एवं2.  सहायक आचार्य, अपोलो कॉलेज ऑफ  वेटरनरी मेडिसिन , जयपुर